शिशु जब संसार में आता है तो वह जीने का सही अर्थ जानता है - सबसे प्रेम करना। वसुधैव कुटुम्बकम् तो उसके डीएनए में है। कोई अपरिचित भी प्रेम से पुचकार दे, भरोसा जीत ले, तो चलना न भी आये तो लुढ़कता-पुढ़कता गोद में चला आता है, कुछ माँगने या पाने के लिए नहीं, बल्कि केवल प्रेम देने और लेने के लिए निस्वार्थ और निश्छल प्रेम, जिसमे सांसारिकता की कोई मिलावट नहीं।
'संसार' नाम का छलावा अभी उसे सिखाया नहीं गया! माया से दूर है। वह तो स्वयं राम है। जिसकी गोद में नन्द चला जाय उसे आ-नन्द से भर देता है, संसार नाम का दुःख भुला देता है।
नन्हा सा शिशु भी निर्बल से निर्बल व्यक्ति के सीने से लग जाय तो जीने की उमंग और पूरे ब्रह्माण्ड से लड़ने की शक्ति भर देता है, क्योंकि उस समय व्यक्ति निजी अहंकार और स्वार्थ के दलदल से ऊपर उठ जाता है, बुरे से बुरे व्यक्ति में भी शिशु पुण्य का प्रकाश भर देता है। क्योंकि शिशु परमात्मा के निकट है। उसके मन-बुद्धि-अहंकार में पिछले जन्मों से आये अच्छे-बुरे संस्कार अभी बीजरूप में ही हैं, जन्मकुण्डली में पाप की ग्रन्थियां खुली नहीं हैं।
अतः मन्दिर जाकर इष्टदेवता की आराधना करने से अधिक पुण्य तो फुटपाथ पर भटकते किसी अनाथ बच्चे की यथाशक्ति सहायता करने से मिलता है - क्योंकि परमात्मा से बड़ा कोई इष्टदेवता नहीं, वह परम आत्मीय
आत्मा है। राम भी जपा तो माया के लिए। सुख खोजा केवल काया के लिए।
शिशु प्रेम लेकर तो आता है किन्तु संसार का कबाड़ा उसे नहीं आता, सीखना पड़ता है। शिशु को हम
शिक्षित करते हैं ताकि संसार में जीने योग्य बन सके, समस्याओं से जूझ सके।
उसे हम शिक्षा कैसे देते हैं ? प्रतीकों (symbols) के माध्यम से। भाषा के शब्द भी प्रतीक हैं, हाव-भाव या चित्र भी प्रतीक हैं। किस चीज के प्रतीक? ऑडियो-विजुअल माध्यमों (पुस्तकों, प्रवचनों, चित्रों या चलचित्रों) द्वारा हम जो कुछ भी सिखाते हैं वे किन चीजों का ज्ञान देते हैं? वह ज्ञान कितने काम का है? इसका अर्थ सिद्ध करना चाहिए?
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