एक ब्राह्मण था तथा महान भक्त था, वह मंदिर की पूजा में बहुत शानदार सेवा पेश करना चाहता था, लेकिन उसके पास धन नहीं था। एक दिन की बात है वह एक भागवत पाठ में बैठा हुआ था और उसने सुना कि नारायण मन में भी पूजे जा सकते हैं।
उसने इस अवसर का लाभ उठाया क्योंकि वह एक लंबे समय से सोच रहा था कि कैसे बहुत शान से नारायण की पूजा करूं, लेकिन उसके पास धन नहीं था।
जब वह यह समझ गया, कि मन के भीतर नारायण की पूजा कर सकते हैं। एक दिन वह गोदावरी नदी में स्नान करने के बाद एक पेड़ के नीचे बैठा हुआ था।
अपने मन के भीतर वह बहुत खूबसूरत सिंहासन का निर्माण कर रहा था, गहनों के साथ लदी और सिंहासन पर भगवान की मूर्ति को रखते हुए, वह भगवान का गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, कावेरी नदी के जल के साथ अभिषेक कर रहा था।
फिर बहुत ही उत्तम तरह से भगवान का श्रृंगार कर और फूल, माला के साथ पूजा करते हुए, वह मीठे चावल बहुत अच्छी तरह से भोजन के रूप मे पका रहा था। वह परखना चाहता था किभोजन भोग के लिए कहीं गरम तो नहीं हैं। तो एसा जानने के लिए उसने भोजन में अपनी उंगली डाली तो उसकी उँगली जल गई।
तब उसका ध्यान टूटा क्योंकि वहाँ कुछ भी नहीं था। केवल अपने मन के भीतर वह सब कुछ कर रहा था। लेकिन उसने अपनी उंगली जली हुइ देखी। तो वह चकित रह गया।
इस तरह, वैकुन्ठ से नारायण, मुस्कुरा रहे थे।
देवी लक्ष्मीजी ने पूछा: आप क्यों मुस्कुरा रहे हैं ?
भगवान बोले: मेरा एक भक्त अतिप्रभावी मानस पूजन कर रहा है। मेरे अन्य धनिक भक्त सब उच्च साधनो एवं सामग्रियों से मेरी अर्चना करते हैं, परन्तु उनका मन भटकता ही रहता है। इस समर्पित भक्त का वास वैकुन्ठ मे होना चाहिए अतः मेरे दूतों को तुरंत उसे वैकुन्ठ लाने के लिए भेजो।
भक्ति-योग इतना अच्छा है कि भले ही आपके पास भगवान की भव्य पूजा के लिए साधन न हो, परंतु आप मन के भीतर ये सब साधन जुटा सकते हो, और यह सब इस भक्त ने संभव करके भी दिखा दिया है।