एक पुरानी कहानी है, एक शेरनी छलांग लगा रही थी। और छलांग के बीच में ही उसको बच्चा हो गया। वह तो छलांग लगाकर चली गई। एक टीले से दूसरे टीले पर! लेकिन बच्चा निचे गिर गया। निचे भेड़ो कि एक कतार गुजरती थी। वह बच्चा भेड़ो में मिल गया। भेड़ो ने उसे पाला -पोसा, बड़ा हुआ। सिंह था तो सिंह ही हुआ। लेकिन एक गलत फहमी में पड़ गया कि खुद को भेड़ मान कर जीने लगा।
एक दिन उसने जब भेड़ो के बीच में एक शेर को भागते देखा, सारी भेड़े भाग गई। वह अकेला रह गया। दूसरे शेर ने इस शेर को पकड़ लिया। यह रोने लगा, मिमियाया, गिड़गिड़ाने लगा। कहने लगा छोड़ दो मुझे। मुझे जाने दो। मेरे सब संगी साथी जा रहे है। दूसरे शेर ने कहा , नालायक, सुन! ये तेरे संगी साथी नहीं है। तेरा दिमाग फिर गया है। तू पागल हो गया है। परन्तु वह नहीं माना। उस बड़े शेर ने उसे पकड़ कर घसीटा, जबरदस्ती उसे ले गया नदी के किनारे।
दोनों ने नदी में झांका। और उस बूढ़े सिंह ने कहा कि देख दर्पण में। देख नदी में। अपना चेहरा देख, मेरा चेहरा देख। पहचान। उसने देखा, पाया, हम दोनों तो एक जैसे हैं। तो मैं भेड़ नहीं हूँ ? एक क्षण में गर्जना हो गई। एक क्षण में ऐसी गर्जना उठी उसके भीतर से, जीवन भर कि दबी हुयी सिंह कि गर्जना, सिंहनाद! पहाड़ कंप गए। बूढ़ा सिंह भी कंप गया। उसने कहा, अरे! अरे इतने जोर से दहाड़ता है? उसने कहा जन्म से दहाड़ा ही नहीं। बड़ी कृपा तुम्हारी जो मुझे जगा दिया। और इसी दहाड़ के साथ उसका जीवन रूपांतरित हो गया।
अगर एक तुम यह देख लो कि जो बुद्ध में है, जो महावीर में है, जो सद्गुरु में है, जो कृष्ण में है वही तुममें भी है, फिर गर्जना निकल जाएगी,
अहं ब्रह्मास्मि। मैं ही ब्रह्म हूँ। गूंज उठेंगे पहाड़। कंप जाएंगे पहाड़। और भीतर आनंद ही आनंद होगा।
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