घटना लगभग डेढ़-सौ साल पुरानी है। जिस व्यक्ति हरबंश उपाध्याय के साथ घटी है, उसी परिवार के सबसे वयोवृद्ध व्यक्ति ने ये बात मुझे लगभग पच्चीस साल पहिले सुनायी थी। गोपनीयता को ध्यान में रखते हुए नाम परिवर्तित कर दिये गये हैं।
सुंदरपुर में कुलदेवी का मंदिर आज जितना विशाल और भव्य रुप ले चुका है, और इसकी प्रसिद्धि व्यापक रुप से दूर-दूर तक फैल चुकी है, लगभग डेढ़ सदी पहले ऐसा नहीं था।
पुरनिये बताते हैं कि तब यहाँ आबादी का दूर-दूर तक पता नहीं था, चारों तरफ जंगल-झाड़ी और वीराने का इतना गहन साम्राज्य था कि शाम की तरफ उधर का कोई भूले से भी रुख नहीं करता था, यहाँ तक कि मंदिर के पुजारी भी धुंधलका छाने से पहले ही मंदिर में दीया जला, आरती वगैरह के बाद माँ को शयन करा जल्दी से वहाँ विदा हो जाते।
मंदिर के पीछे रेत का एक बड़ा टीला सा हुआ करता था, जिसे बचमन में मैने भी देखा था। लोग कहते हैं कि पुराने समय में यहाँ किसी राजा-रानी का महल हुआ करता था। ठीक उसी से सटकर पहले गंगा जी बहती थीं जो आज हटकर लगभग तीन किलोमीटर दूर जा चुकी हैं। मंदिर उत्तर-पश्चिम में एक प्राकृतिक बड़ी नहर है जिससे बरसात के दिनों मे बाढ़ का पानी सीधे गंगाजी में जाकर गिरता है।
इसी नहर के उत्तर तरफ बीस-पच्चीस घरों का वो गांव आबाद था। उस समय! दूर-दूर तक दसियों किमी के दायरे में सिवाय इस छोटी आबादी के मात्र खेतों का सूनापन पसरा रहता था। कालांतर में बाढ़ की मार से बचने के लिए वो छोटी सी बस्ती नहर के इस पार मंदिर के बगल में आबाद हो चुकी है।
उसी बस्ती के रहने वाले थे उपाध्याय जी, स्वभाव से अत्यन्त भोले और कुलदेवी के अनन्य भक्त। लोगों के लाख मना करने के बावजूद जाड़ा, गर्मी, बरसात, मौसम कैसा भी हो, रात को खाना खाने के बाद वो नहर पार करके मंदिर में मत्था टेकने जरुर आते थे।
ऐसे ही पूस की एक सर्द रात थी, वातावरण में गहरी धुंध छायी हुई थी। चूंकि उस समय घड़ी का उतना चलन नहीं था, सो उपाध्याय जी घर पर खाने के बाद डेरे पर चले आये गायों की देखभाल के लिए। वहाँ उस दिन उन्हें कुछ ज्यादा ही देर हो गयी।
आसमान में कोहरे की वजह से चाँद दिखा नहीं, सो समय का ठीक-ठाक अंदाजा नहीं लगा पाये और शरीर पर कंबल डाले रोज की तरह मंदिर की ओर बढ़ चले। चूंकि उस समय नहर में पानी घुटनों से ज्यादा नहीं होता था तो पार करने में ज्यादा परेशानी नहीं होती थी।
जाड़े की उस रात, जब वो मंदिर के पास पहुँचे, दूर-दूर तक सन्नाटा भांय-भांय कर रहा था। एक पल को उनका शरीर भय के मारे गनगना गया, आँखें अनायास मुंद गयीं।
थोड़ी ही देर में उन्हें आभास हुआ कि उनके इर्द-गिर्द कई सारे लोगों का जमावड़ा हो चुका है जो आहिस्ते आहिस्ते उन्हें अपने घेरे में लेने के लिए अपना घेरा तंग कर रहे हैं।
हे माँ! क्या आज की रात तुम्हारे धाम पर ही मेरी जीवनलीला समाप्त हो जायेगी? उन्होंने मन ही मन माँ से गुहार लगायी।
और तब, जबकि लगा कि वो दुष्ट आत्मायें बस उन्हें दबोचने ही वाली हैं, अचानक मंदिर के अंदर रखे हुए नगाड़े अनायास जोर-जोर से बजने लगे। उपाध्याय जी चौंके!! रात के इस वक्त मंदिर में कौन बैठा है नगाड़ा बजाने के लिए।
तत्क्षण उन्होंने अपनी आँखें खोल दीं। आस-पास किसी का नामोनिशान तक नहीं था। सहसा उनकी नजर मंदिर के द्वार की ओर उठी। फाटक चौपट खुला था और उसमें से साक्षात् कुलदेवी बाहर आ रही थीं।
क्यों रे! यही समय मिला है तुझे मेरे पास आने का? जानता नहीं कि ये मेरे शयन का समय है?
अभी मुझे थोड़ी सी भी देर हो जाती तो तू जिंदा नहीं रहता, फिर कल को लोग यही कहते कि देवी माँ का इतना भक्त बनता था और उन्हीं के धाम पर उसके प्राण ना बच पाये।
माई, ये तो मेरा रोज का नियम है, आज कैसे नागा कर देता? हरबंश उपाध्याय देवी को सामने पा निहाल हो गये और उनके चरणों में लोट गये।
पगले, रोज से आज ज्यादे देर कर दिया है तूने! अभी आधी रात का समय हो चला है।
माई, गलती हो गयी! मुझे समय का पता नहीं चला। पर क्या करुं, जब तक आपके दर्शन नहीं कर लेता, मुझे संतोष ही नहीं मिलता।
जानती हूँ रे! इसीलिए तो पहली बार किसी के सामने साक्षात् आयी हूँ। पर तू भी ये मूर्खता छोड़ दे।
माई, ये तो मेरी भक्ति है!
नि:संदेह तुम्हारी भक्ति उत्कृष्ट है, इसीलिए तो कह रही हूँ। अब आज के बाद तुझे रात में यहाँ आने की आवश्यकता नहीं है, तू घर से ही मुझे प्रणाम कर लेना, मैं स्वीकार कर लूंगी। जब दर्शन का जी चाहे, दिन में आ जाना मेरे पास। चल, अब तुझे घर छोड़ दूं।
माई क्षमा, आपने मुझे साक्षात् दर्शन दे दिये, जीवन धन्य हो गया! अब आपको कष्ट देकर मुझे नर्क नहीं जाना, आप वापस मंदिर में जायें, मैं स्वयं घर चला जाऊंगा। हरबंश ने हाथ जोड़ लिये।
तू चुपचाप चल, मैं तुझे घर छोड़कर ही आऊंगी।
फिर आगे-आगे कुलदेवी और पीछे हरबंश उपाध्याय। दोनों नहर के पास पहुँचे ही थे कि हरबंश का शरीर झनझना गया, सामने से सफेद धोती और खड़ाऊं पहने एक वृद्ध आदमी आ रहे थे। उन्होंने आगे बढ़कर कुलदेवी के चरण स्पर्श किये।
ये आपको कहाँ से मिल गया माई?
फिर कुलदेवी ने सारी बात बता दी। हरबंश ने आगे बढ़कर वृद्ध के चरणों में माथा पटक दिया। आप कौन हैं देवता, मैंने पहचाना नहीं?
बदले में जवाब कुलदेवी ने दिया: अरे यही तो हैं तुम्हारे गांव के देवता हैं। हाँ, कभी देखे नहीं तो पहचानोगे कैसे? रात के पहर जब मेरा शयन का समय होता है, ये पूरे गांव-क्षेत्र का भ्रमण करते हैं ताकि कुछ अनिष्ट ना हो।
वृद्ध मुस्कराये: माई,अब आप अपने धाम पर जायें, मैं इसे गांव तक छोड़कर आता हूँ।
हरबंश उपाध्याय के जैसे भाग्य उदय हुए थे। माई के चरणों में देर तक पड़े अश्रु बहाते रहे। फिर ग्रामदेवता के साथ गांव की सीमा पर आये।
अब तू घर जा हरबंश, जब भी मन से याद करेगा, हमलोग तुम्हारे पास होंगे लेकिन अंधियारी रात में अपने प्राणों को संकट में डाल हमलोगों के पास आने की गलती दुबारा मत करना।
बाबा, जब आप और माई साथ हैं तो मुझे क्या सोचना: हरबंश ने हाथ जोड़े।
इसी निर्दोष विश्वास ने तो तुम्हारी रक्षा की है बच्चे! लेकिन इसका ये अर्थ तो नहीं है कि तू अपने प्राण जानबूझकर संकट में डाले। मनुष्य को विधाता ने इसीलिए विवेकशील बनाया है ताकि वो उचित-अनुचित का भेद कर सके। समयानुकूल आचरण सबको करना चाहिये। तुम्हारी आस्था प्रशंसनीय है, इसीलिये कहता हूँ, रात-बिरात या खराब मौसम में अपने घर से ही याद कर लेना हम सबको, बाकी जब जी चाहे, चले आना
कहकर ग्रामदेवता गांव की सीमा से लौट चले। उस घटना के बाद हरबंश उपाध्याय की जीवनधारा ही बदल गयी। कुलदेवी और ग्रामदेवता की सीख का ही फल था कि उन्होंने फिर जीवन के किसी भी क्षेत्र में कुछ भी गलत निर्णय नहीं लिया।
उन्हीं के संस्कारों का परिणाम ये हुआ कि आज कई पीढ़ियों के बाद भी उनका परिवार धर्म की राह पर चलता हुआ फल-फूल रहा है।
- कृपा शंकर मिश्र
खलनायक, गाजीपुर, उ.प्र.