श्री रामचरितमानस के प्रथम श्रोता संत:
मनुष्यों में सबसे प्रथम यह ग्रन्थ सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ मिथिला के परम संत श्रीरूपारुण स्वामीजी महाराज को। वे निरंतर विदेह जनक के भाव में ही मग्न रहते थे और श्रीरामजी को अपना जामाता समझकर प्रेम करते थे।
गोस्वामी जी ने उन्ही को सबसे अच्छा अधिकारी समझा और श्री रामचरितमानस सुनाई। उसके बाद बहुतो ने रामायण की कथा सुनी। उन्ही दिनों भगवान् की आज्ञा हुई कि तुम काशी जाओ और श्रीसुलसीदास जी ने वहाँ से प्रस्थान किया तथा वे काशी आकर रहने लगे।
गोस्वामी जी ने काशी आकर भगवान् विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को श्री रामचरितमानस सुनाई। काशी में ब्राह्मणों और विद्वानों ने इस ग्रन्थ का बहुत विरोध किया। वे कहने लगे कि कैसे इस बात का पता लगेगा कि रामचरितमानस में लिखी बातें शास्त्रीय है या नहीं, इसका प्रमाण कुछ है ही नहीं।
निश्चय हुआ कि ग्रन्थ को विश्वनाथ जी के मंदिर में रात भर रखा जाए और भगवान शंकर को स्वयं प्रातः निश्चय करने दिया जाए। समस्त सहस्त्र और वेदों के निचे मानस जी को रखा गया। सबेरे जब पट खोला गया तो रामचरितमानस सबसे ऊपर थी और उसपर लिखा हुआ पाया गया
सत्यम शिवम् सुन्दरम् और नीचे भगवान् श्री शंकर की सही थी।
इसका अर्थ है कि इसमें जो लिखा है वह सब सत्य है, शिव है और जीवन को सुंदर बनाने वाला है। उस समय उपस्थित लोगो ने सत्यं शिवं सुंदरम् की आवाज भी कानों से सुनी।
मानस के प्रचार से काशी के संस्कृत पण्डितों के मन में बडी चिंता हुई। उन्होंने सोचा हमारा तो सब मान-माहात्म्य ही खों जायगा। वे दल बांधकर तुलसीदास जी की निन्दा करने लगे और उनकी पुस्तक को ही नष्ट कर देने का षड्यंत्र रचने लगे।
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