श्री राम लक्षमण का गोस्वामी जी की कुटिया के बहार पहरा देना:
श्री रामचरितमानस की ख्याति से परेशान काशी के संस्कृत पण्डितों ने कुछ षड़यंत्र सोचा और मानस की प्रति चुराने के लिये दो चोर भेजे गये। उन्होने जाकर देखा कि तुलसीदास जी की कुटीके आसपास दो वीर हाथ मे धनुष बाण लेकर पहरा दे रहे हैं। वे बड़े ही सून्दर श्याम और गौर वर्ण के थे।
उन वीर पाहरेदारों की सावधानी देखकर चोर बडे प्रभावित हुए और उनके दर्शन से उनकी बुद्धि शुद्ध हो गयी। उन्होने श्रीतुलसीदास जी के पास जाकर सब वृत्तान्त कहा और पूछा कि आपके ये सुंदर वीर पहरेदार कौन हैं ? तुलसीदास जी समझ गए की प्रभु श्री राम लक्ष्मण ही है।
तुलसीदास जी के नेत्रों से अश्रुओं की धारा बह चली, वाणी गदगद हो गयी। अपने प्रभुके कृपा समुद्र में वे डूबने-उतराने लगे। उन्होने अपने को संभालकर कहा कि तुमलोग बडे भाग्यवान हो, घन्य हो किं तुम्हें भगवान् के दर्शन प्राप्त हुए। उन चोरो ने अपना रोजगार छोड दिया और वे भजन में लग गये।
तुलसीदास जी ने कुटी की सब वस्तुएँ लुटा दीं, मूल पुस्तक यत्न के साथ अपने मित्र टोडरमल जोकि अकबर के नवरत्नों में से एक के घर रख दीं। श्री तुलसीदास जी ने एक
दूसरी प्रति लिखी उसी के आधार पर पुस्तको की प्रतिलिपियां तैयार होने लगीं।
दिन दूना रात चौगुना प्रचार होने लगा। पण्डितों का दुःख बढ़ने लगा। उन्होंने काशी के प्रसिद्ध तांत्रिक वटेश्वर मिश्र से प्रार्थना की कि हमलोगों को बडी पीडा हो रही है, किसी प्रकार तुलसीदासजी का अनिष्ट होना चाहिये।
उन्होंने मारण प्रयोग किया और प्रेरणा करके भैरव को भेजा।
भैरव तुलसी दास के आश्रमपर गये, वहाँ हनुमान जी तुलसीदास जी की रक्षा करते देखकर वे भयभीत होकर लौट गये, मारण का प्रयोग करनेवाले वटेश्वर मिश्र के प्राणों पर ही आ बनी। परंतु अब भी पण्डितों का समाधान नहीं हो सका।
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