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बिल्वमंगल जी द्वारा अपनी आँखें फोड़ना - सत्य कथा (Bilvamangal Ji Dwara Apni Ankhen Phodana)


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भक्तमाल कथा:
गुलबर्गा जिले के गाँव में ब्राह्मण श्री रामदास जी का एक पुत्र रहता था, उसका नाम बिल्वमंगल था। महाकामी बिल्वमंगल अपनी पत्नी होते हुए भी एक दूसरे गाँव की दुश्चरित्रा स्त्री के फंदे में बुरी तरह फस गया था। दोनों गाँव के बीच बड़ी नदी थी और वह युवक प्रतिदिन एक छोटी सी नाव से नदी पार करके अपनी प्रेमिका के पास जाता था। एक दिन उस युवक को अपने पिता के श्राद्धकर्म करना था, इसलिये उस दिन वह जा नहीं सकता था, पर उसका मन अपनी प्रेमिका से मिलने के लिए छटपट कर रहा था। किन्तु पिता के श्राद्धकर्म को छोड़ कर वह जा नहीं सकता था। हिन्दू समाज में यह कार्य अनिवार्य अनुष्ठान (Mandatory ceremony) माना जाता है। वह मन ही मन क्रोध से उबल रहा था, परन्तु विवश था। जैसे-तैसे ब्राह्मणों को झटपट भोजन करवा कर श्राद्ध अनुष्ठान किसी प्रकार समाप्त करते करते रात्रि हो गयी। बिल्‍वमंगल अपनी पत्नी का त्याग करके घनघोर अन्धकार में ही दौड़कर नदी के किनारे पहुँचा। भगवान की माया अपार है। अकस्‍मात् प्रबल वेग से तूफ़ान आया और उसी के साथ मूसलाधार वर्षा होने लगी। नदी में भी भयंकर लहरें उठ रही थीं। ऐसे में नदी पार करना बहुत खतरनाक था। उस समय वहाँ कोई नौका भी उपलब्ध नहीं थी। केवट इतने भयभीत थे कि कोई नदी पार करने को तैयार नहीं हुआ। किन्तु उसे तो जाना ही था, क्योंकि उसका हृदय तो कभी का धर्म-कर्म से शून्‍य (विवेक-शून्य) हो चुका था। उसका मन मतवाला हो रहा था, उस स्त्री के प्रेम में तड़प रहा था, अतः उसने हर हाल में जाने का निश्चय कर लिया।
पास ही लकड़ी का एक कुन्दा बहता चला जा रहा था, उसने उसे पकड़ लिया और उसी के सहारे वह नदी भी पार कर गया। दूसरे किनारे पर पहुँचकर उसने उस कुन्दे को निकालकर तट पर डाल दिया और अपनी प्रेमिका के घर पहुँच गया। घर के द्वार बन्द थे। उसने द्वार खटखटाया, किन्तु इतने जोर का तूफान बह रहा था कि किसीने उसकी पुकार न सुनी। वह घर के चारों ओर घूमा और अन्त में उसे दीवार पर रस्सी जैसी वस्तु लटकती हुई दिखाई दी। उसने उस रस्सी को पकड़ लिया, और मन ही मन बोला , 'ओह, मेरी प्रेमिका ने मेरे ऊपर जाने के लिये रस्सी लटका रखी है !' उसी रस्सी के सहारे वह दीवार पर चढ़ गया, और दूसरी ओर पहुँच गया। तभी उसका पाँव फिसला, वह गिर पड़ा, गिरने से ध्वनि हुई और घर के लोग जग गए। वह स्त्री बाहर आयी, तो अपने प्रेमी को बेहोश पड़ा पाया। किसी तरह उसे होश में लायी, तब उसे अनुभव हुआ कि उसके प्रेमी के देह से भयानक दुर्गन्ध आ रही थी। उसने पूछा तुम्हें क्या हो गया है ? तुम्हारे शरीर से इतनी दुर्गन्ध क्यों आ रही है ? तुम घर कैसे आये ? क्यों, क्या तुमने मेरे लिए रस्सी नहीं लटका रखी थी ? स्त्री ने हँसते हुए कहा, यहाँ तुम्हारी प्रेमिका कौन है ? हमलोग तो तुमसे धन पाने के लिए प्रेमिका होने नाटक करते हैं। तुम क्या यह सोंचते हो कि मैं तुम्हारे लिये रस्सी लटकाऊँगी ? तुम तो बहुत बड़े मूर्ख हो ! तुमने नदी कैसे पार की ? 'क्यों, मैंने एक बहते कुन्दे को पकड़ लिया था। स्त्री ने सुनकर कहा, चलो जरा दिखाओ तो।
वह रस्सी एक नाग था, भयानक विषधर, जिसके एक दंश से मृत्यु निश्चित थी। जिस समय रस्सी समझकर उसकी पूँछ पकड़ी थी, उस समय उसका सिर बिल में था और वह भीतर जा रहा था। प्रेम में पागल होकर ही उसने यह कार्य किया था। जब विषधर का सिर बिल में हो और शरीर बाहर, और उसे पकड़ा जाय तो वह कदापि अपना सिर बाहर न निकालेगा। इसीलिये वह युवक उसके सहारे ऊपर चढ़ गया। लेकिन बोझ और खिंचाव से वह विषधर मर गया था। फिर स्त्री ने पूछा, तुम्हें लकड़ी का कुन्दा कहाँ मिला ? 'वह तो नदी में ही बह रहा था। वास्तव में वह जिसे कुन्दा समझ रहा था , वह एक दुर्गन्धपूर्ण मृत शरीर था। इसीलिए उसके शरीर से इतनी भयानक दुर्गन्ध आ रही थी।
चिंतामणि ने धिक्कारते हुए कहाँ रे नीच ब्राह्मण! तू मुझ पर आसक्त होकर ऐसे कर्म कर रहा है। तुमने अपने हृदय में मुझ जैसी स्त्री को स्थान क्यों दिया ? मेरे जैसी स्त्री के प्रेम में पागल होकर द्वार खटखटाने के लिए तू मध्यरात्रि में इतना साहस कर सकता है, इतनी ही अनुरक्ति यदि तू भगवान के साथ रखता, तो तेरा जीवन धन्य हो जाता। इसे सुनकर बिल्वमंगल उल्टे पांव घर लौटे और भगवान कृष्ण के पवित्र चिंतन में निमग्न रहने का प्रयास करने लगा।

तुमने यदि अपने हृदय में भगवान को स्थान दे दिया होता, तो शायद तुम एक महान संत/ शिक्षक/नेता बन जाते! इन बातों को सुनकर उस युवक के सिर पर मानो वज्रपात हो गया। मन में एक बिजली सी कौंधी और कुछ क्षणों के लिये मानों उसको अन्तर्दृष्टि प्राप्त हो गयी। क्या सचमुच मेरे हृदय में ही भगवान हैं ? स्त्री ने कहा, " हाँ, हाँ मेरे मित्र, भगवान वहीँ हैं !'
बिल्वमंगल ने उसी क्षण उस स्त्री के घर का त्याग कर दिया, और चलते चलते एक जंगल में पहुँच गया। और ईश्वर से रो रो कर प्रार्थना करने लगा, 'हे ईश्वर मैं केवल तुम्हें चाहता हूँ, मेरा यह प्रचण्ड प्रेम प्रवाह किसी नश्वर मानव-शरीर में शांति नहीं पा सकता। मैं तो उस प्यार के सागर से प्रेम करना चाहता हूँ, जिस में मेरे प्रेम का यह वेगवती नदी जाकर एकाकार हो जाये। मेरे प्रचंड प्रेम की यह वेगवती नदी, किसी छोटे से तालाब में (क्षणभंगुर नाते-रिश्तों में) नहीं समा सकती। इसे तो असीम सागर ही चाहिये। प्रभो ! तुम जहाँ कहीं भी हो,मेरे पास आओ। इसी प्रकार बहुत वर्षों तक जंगल में रहते हुए साधना करने के बाद, उसे ऐसा लगा कि अब उसका मन 'साम्यभाव' में स्थित हो चुका है।
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