ऋषिगण बोले, 'हे महाभाग! नर के मित्र नारायण नारद के प्रति जो शुभ वचन बोले वह आप विस्तार पूर्वक हमसे कहें।'
सूतजी बोले, 'हे द्विजसत्तमो! नारायण ने नारद के प्रति जो सुन्दर वचन कहे वह जैसे मैंने सुने हैं वैसे ही कहता हूँ आप लोग सुनें।'
नारायण बोले, 'हे नारद! पहले महात्मा श्रीकृष्णचन्द्र ने राजा युधिष्ठिर से जो कहा था वह मैं कहता हूँ सुनो।
एक समय धार्मिक राजा अजातशत्रु युधिष्ठिर, छलप्रिय धृतराष्ट्र के दुष्टपुत्रों द्वारा द्यूतक्रीड़ा में हार गये। सबके देखते-देखते अग्नि से उत्पन्न हुई धर्मपरायणा द्रौपदी के बालों को पकड़ कर दुष्ट दुःशासन ने खींचा, और खींचने के बाद उसके वस्त्र उतारने लगा तब भगवान् कृष्ण ने उसकी रक्षा की। पीछे पाण्डव राज्य को त्याग काम्यक वन को चले गये। वहाँ अत्यन्त क्लेश से युक्त वे वन के फलों को खाकर जीवन बिताने लगे। जैसे जंगली हाथियों के शरीर में बाल रहते हैं इसी प्रकार पाण्डवों के शरीर में बाल हो गये।
इस प्रकार दुःखित पाण्डवों को देखने के लिये भगवान् देवकीसुत मुनियों के साथ काम्यक वन में गये। उन भगवान् को देखकर मृत शरीर में पुनः प्राण आ जाने की तरह युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन आदि प्रेमविह्वल होकर सहसा उठ खड़े हुए और प्रीति से श्रीकृष्ण के गले मिले, और भगवान् कृष्ण के चरण कमलों में भक्ति से नमस्कार करने लगे, द्रौपदी ने भी धीरे-धीरे वहाँ आकर आलस्यरहित होकर भगवान् को शीघ्र नमस्कार किया।
उन दुःखित पाण्डवों को मृग के चर्म के वस्त्रों को पहने देख और समस्त शरीर में धूल लगी हुई, रूखा शरीर, चारों तरफ बाल बिखरे हुए। द्रौपदी को भी उसी प्रकार दुर्बल शरीरवाली और दुःखों से घिरी हुई देखा। इस तरह दुःखित पाण्डवों को देखकर वे अत्यन्त दुःखी हुए।
भक्तवत्सल भगवान् धृतराष्ट्र के पुत्रों को जला देने की इच्छा से उन पर क्रुद्ध हुए। विश्व के आत्मा, बाहों को चढ़ा गुरेर कर देखने वाले, करोड़ों काल के कराल मुख की तरह मुखवाले, धधकती हुई प्रलय की अग्नि के समान उठे हुए, ओठों को दाँत के नीचे जोर से दबाकर, तीनों लोकों को जला देने की तरह ऐसे उद्घत हुए जैसे श्रीसीता के वियोग से सन्तप्त भगवान् रामचन्द्र को रावण पर जैसा क्रोध आया था।
उस प्रकार से क्रुद्ध भगवान् को देखकर काँपते हुए अर्जुन, कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए द्रौपदी, धर्मराज तथा और लोगों से भी अनुमोदित होकर शीघ्र ही हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे।
अर्जुन बोले, 'हे कृष्ण! हे जगत् के नाथ! हे नाथ! मैं जगत् के बाहर नहीं हूँ। आप ही जगत् की रक्षा करने वाले हैं, हे प्रभो! क्या मेरी रक्षा आप न करेंगे? जिनके नेत्र के देखने से ही ब्रह्मा का पतन हो जाता है उनके क्रोध करने से क्या नहीं हो सकता है, यह कौन जानता है कि क्या होगा?
हे संहार करने वाले! क्रोध का संहार कीजिये। हे तात के पात! हे जगत्पते! आप ऐसे महापुरुषों के क्रोध से संसार का प्रलय हो जाता है। सम्पूर्ण तत्त्व को जानने वाले सर्व वस्तुओं के कारण के कारण, वेद और वेदांग के बीज के बीज आप साक्षात् श्रीकृष्ण हैं मैं आपकी वन्दना करता हूँ। आप ईश्वर हैं इस चराचरात्मक संसार को आपने उत्पन्न किया है, सर्वमंगल के मांगल्य हैं और सनातन के बीजरूप हैं। इसलिये एक के अपराध से अपने बनाए समस्त विश्व का आप नाश कैसे करेंगे? कौन भला ऐसा होगा जो मच्छरों को जलाने के लिये अपने घर को जला देता हो?'
श्रीनारायण बोले, 'दूसरों की वीरता को मर्दन करने वाले अर्जुन ने भगवान् से इस प्रकार निवेदन कर प्रणाम किया।
सूतजी बोले, 'श्रीकृष्णजी ने अपने क्रोध को शान्त किया और स्वयं भी चन्द्रमा की तरह शान्त हो गये। इस प्रकार भगवान् को शान्त देखकर पाण्डव स्वस्थ हुए। प्रेम से प्रसन्नमुख एवं प्रेमविह्नल हुए सब ने भगवान् को प्रणाम किया और जंगली कन्द, मूल, फल आदि से उनकी पूजा की।
नारायण बोले, 'तब शरण में जाने योग्य, भक्तों के ऊपर कृपा करने वाले श्रीकृष्ण को प्रसन्न जान, विशेष प्रेम से भरे हुए, नम्र अर्जुन ने बारम्बार नमस्कार किया और जो प्रश्न आपने हमसे किया है वही प्रश्न उन्होंने श्रीकृष्ण से किया।
इस प्रकार अर्जुन का प्रश्न सुनकर श्रीकृष्ण क्षणमात्र मन से सोचकर अपने सुहृद्वर्ग पाण्डवों को और व्रत को धारण की हुई द्रौपदी को आश्वासन देते हुए वक्ताओं में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण पाण्डवों से हितकर वचन बोले।
श्रीकृष्णजी बोले, 'हे राजन्! हे महाभाग! हे बीभत्सो! अब मेरा वचन सुनो। आपने यह प्रश्न अपूर्व किया है। आपको उत्तर देने में मुझे उत्साह नहीं हो रहा है। इस प्रश्न का उत्तर गुप्त से भी गुप्त है ऋषियों को भी नहीं विदित है फिर भी हे अर्जुन! मित्र के नाते अथवा तुम हमारे भक्त हो इस कारण से हम कहते हैं।
हे सुव्रत! वह जो उत्तर है वह अति उग्र है, अतः क्रम से सुनो! चैत्रादि जो बारह मास, निमेष, महीने के दोनों पक्ष, घड़ियाँ, प्रहर, त्रिप्रहर, छ ऋतुएँ, मुहूर्त दक्षिणायन और उत्तरायण, वर्ष चारों युग, इसी प्रकार परार्ध तक जो काल है यह सब और नदी, समुद्र, तालाब, कुएँ, बावली, गढ़इयाँ, सोते, लता, औषधियों, वृक्ष, बाँस आदि पेड़ वन की औषधियाँ, नगर, गाँव, पर्वत, पुरियाँ ये सब मूर्तिवाले हैं और अपने गुणों से पूजे जाते हैं। इनमें ऐसा कोई अपूर्व व्यक्ति नहीं है जो अपने अधिष्ठातृ देवता के बिना रहता हो, अपने अपने अधिकार में पूजे जाने वाले ये सभी फल को देने वाले हैं। अपने-अपने अधिष्ठातृ देवता के योग के माहात्म्य से ये सब सौभाग्यवान् हैं।
हे पाण्डुनन्दन! एक समय अधिमास उत्पन्न हुआ। उस उत्पन्न हुए असहाय निन्दित मास को सब लोग बोले कि यह मलमास सूर्य की संक्रान्ति से रहित है अतः पूजने योग्य नहीं है। यह मास मलरूप होने से छूने योग्य नहीं है और शुभ कर्मों में अग्राह्य है इस प्रकार के वचनों को लोगों के मुख से सुनकर यह मास निरुद्योग, प्रभारहित, दुःख से घिरा हुआ, अति खिन्नमन, चिन्ता से ही ग्रस्तमन होकर व्यथित हृदय से मरणासन्न की तरह हो गया। फिर वह धैर्य धारण कर मेरी शरण में आया।
हे नर! वैकुण्ठ भवन में जहाँ मैं रहता था वहाँ पहुँचा और मेरे घर में आकर मुझ परम पुरुषोत्तम को इसने देखा। उस समय अमूल्य रन्तों से जटित सुवर्ण के सिंहासन पर बैठे मुझको देखकर यह भूमि पर साष्टांग दण्डवत् कर हाथ जोड़कर नेत्रों से बराबर आँसुओं की धारा बहाता हुआ धैर्य धारण कर गद्गद वाणी से बोला।'
सूतजी बोले, 'इस प्रकार महामुनि बदरीनाथ कथा कहकर चुप हो गये। तब नारायण के मुख से कथा सुन भक्तों के ऊपर दया करने वाले नारदमुनि पुनः बोले।'
नारद बोले, 'इस प्रकार अपनी पूर्ण कला से विराजमान भगवान् विष्णु के निर्मल भवन में जाकर भक्ति द्वारा मिलने वाले, जगत् के पापों को दूर करने वाले, योगियों को भी शीघ्र न मिलने वाले जगत् को अभयदान देने वाले, ब्रह्मरूप, मुकुंद जहाँ पर थे उनके चरण कमलों की शरण में आया हुआ अधिमास क्या बोला?
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये तृतीयोऽध्यायः ॥३॥
॥ हरिः शरणम् ॥