श्रीनारायण बोले, 'इस प्रकार कह कर मौन हुए मुनिश्वर बाल्मीकि मुनि को सपत्नीक राजा दृढ़धन्वा ने नमस्कार किया, और प्रसन्नता के साथ भक्तिपूर्वक पूजन किया। उस राजा दृढ़धन्वा से की हुई पूजा को लेकर आशीर्वाद को दिया। तुम्हारा कल्याण हो। पापों का नाश करने वाली सरयू नदी को मैं जाऊँगा। इस समय हम दोनों को इस प्रकार बात करते सायंकाल हो गया है। यह कह कर मुनिश्रेष्ठ बाल्मीकि मुनि शीघ्र चले गये। राजा दृढ़धन्वा भी सीमा तक बाल्मीकि मुनि को पहुँचा कर अपने घर लौट आया। घर जाकर अपनी गुणसुन्दरी नामक सुन्दरी स्त्री से बोला।
राजा दृढ़धन्वा बोला, 'अयि सुन्दरी! राग, द्वेष, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य इन छ शत्रुओं से युक्त, गन्धर्व नगर के समान इस असार संसार में मनुष्यों को क्या सुख है? कीट विष्टा भस्म रूप और वात पित्त कफ इनसे युक्त मल, मूत्र, रक्त से व्यप्त ऐसे इस शरीर से मेरा क्या प्रयोजन है ? हे वरारोहे! अध्रुव शरीर से ध्रुववस्तु एकत्रित करने के लिये पुरुषोत्तम का स्मरण कर वन को जाता हूँ।' तब वह गुणसुन्दरी ऐसा सुन के विनय से नम्रता युक्त तथा शुद्धता से हाथ जोड़ अपने पति से बोली।
गुणसुन्दरी बोली, 'हे नृपते! मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी, पतिव्रता स्त्रियों के पति ही देवता हैं। जो स्त्री पति के जाने पर पुत्र के गृह में रहती है, वह स्त्री पुत्रवधू के आधीन हो पराये गृह में कुत्ते के समान रहती है। पिता स्वल्प देता है और भाई भी स्वल्प ही देता है अत्यन्त देवेवाले पति के साथ कौन स्त्री न जायगी?'
इस प्रकार प्रिया की बात को स्वीकार कर पुत्र का अभिषेक कर स्त्री सहित शीघ्र ही मुनियों से सेवित वन को गया। दोनों स्त्री-पुरुष हिमालय के समीप गंगाजी के निकट जाकर पुरुषोत्तम मास के आनेपर दोनों काल में स्नान करने लगे।
हे नारद! वहाँ पुरुषोत्तम मास को प्राप्त कर विधि से पुरुषोत्तम का स्मरण कर भार्या सहित तपस्या करने लगे। ऊपर हाथ किये बिना अवलम्ब पैर के अंगूठे पर स्थिर आकाश में दृष्टि लगाये निराहार होकर राजा श्रीकृष्ण का जप करने लगे। इस प्रकार व्रत की विधि में स्थित हुए तपोनिधि राजा की पतिव्रता रानी सेवा में तत्पर हुई।
इस प्रकार तप करते हुए राजा का पुरुषोत्तम मास सम्पूर्ण होने पर घंटिमाओं के जल से विभूषित विमान वहाँ आया। ऐसे तत्काल आये हुए पुण्यशील और सुशील सेवित विमान को देख स्त्री सहित राजा आश्चर्य युक्त हो, विमान में बैठे हुए पुण्यशील और सुशील को नमस्कार किया। पुनः वे स्त्री सहित राजा को विमान में बैठने की आज्ञा दिये। स्त्री सहित राजा विमान में बैठ के सुन्दर नवीन शरीर धारण कर तत्काल गोलोक को गये।
इस प्रकार पुरुषोत्तम मास में तप करके भय रहित लोक को प्राप्त होकर हरि के निकट आनन्द करने लगे। और पतिव्रता स्त्री भी पुरुषोत्तम में तप करते हुए पति की सेवा कर उसी लोक को प्राप्त हुई।
श्रीनारायण बोले, 'हे नारद! मेरी एक जिह्वा है इस समय इसका क्या वर्णन करूँ? इस पृथ्वी पर पुरुषोत्तम के समान कुछ भी नहीं है। सहस्र जन्म में तप करने से जो फल प्राप्त नहीं होता है वह फल पुरुषोत्तम के सेवन से पुरुष को प्राप्त हो जाता है।
श्री पुरुषोत्तम मास में बुद्धि पूर्वक अथवा अबुद्धि पूर्वक किसी भी बहाने यदि उपवास, स्नान, दान और जप आदि किया जाय तो करोड़ों जन्म पर्यन्त किये पाप नष्ट हो जाते हैं। जैसे दुष्ट बन्दर ने अबुद्धि पूर्वक तीन रात तक पुरुषोत्तम मास में केवल स्नान कर लिया तो उसके पूर्व जन्म के समस्त कुकर्मों का नाश हो गया, और वह बन्दर भी दिव्य शरीर धारण कर विमान पर चढ़कर जरामरण रहित गोलोक को प्राप्त हुआ। इसलिये यह पुरुषोत्तम मास संपूर्ण मासों में अत्यन्त श्रेष्ठ मास है क्योंकि इसने बिना जाने से ही पुरुषोत्तम मास में किये गये स्नानमात्र से दुष्ट वानर को हरि भगवान् के समीप पहुँचाया।
अहो आश्चर्य है! श्रीपुरुषोत्तम मास का सेवन जो नहीं करनेवाले हैं वे महामूर्ख हैं। वे धन्य हैं और कृतकृत्य हैं तथा उनका जन्म सफल है। जो पुरुष श्रीपुरुषोत्तम मास का विधि के साथ स्नान, दान, जप, हवन, उपवासपूर्वक सेवन करते हैं।
नारद मुनि बोले, 'वेद में समस्त अर्थों का साधन करनेवाला मनुष्य शरीर कहा गया है। परन्तु यह वानर भी व्याज से पुरुषोत्तम मास का सेवन कर साक्षात् मुक्त हो गया। हे तपोनिधे! संपूर्ण प्राणियों के कल्याण के निमित्त मुझसे इस कथा को कहिये। इस वानर ने तीन रात्रि तक स्नान कहाँ पर किया? यह वानर कौन था? आहार क्या करता था? उत्पन्न कहाँ हुआ? कहाँ रहता था? और श्रीपुरुषोत्तम मास में व्याज से उसको क्या पुण्य हुआ? यह सब विस्तार से सुनने की इच्छा करने वाले मेरे से कहिये। आप से कथामृत श्रवण करते हुए मुझे तृप्ति नहीं होती है।
श्रीनारायण बोले, 'कोई केरल देश का अत्यन्त लालची, शहद की मक्खियों के समान धन में प्रेम रखनेवाला, सर्वदा धन के संचय करने में तत्पर रहनेवाला ब्राह्मण था। उसी कर्म से लोक में कदर्यनाम से प्रसिद्ध था। उसके पिता ने भी प्रथम उसका नाम चित्रशर्मा रक्खा था।
उस कदर्य ने सुन्दर अन्न, सुन्दर वस्त्र का किसी समय उपभोग नहीं किया। उस कुबुद्धि ने अग्नि में आहुति, पितरों का श्राद्ध भी नहीं किया। यश के लिये कुछ नहीं किया और आश्रित वर्ग का पोषण नहीं किया। अन्याय से धन को इकट्ठा कर पृथिवी में गाड़ दिया। माघमास में उसने कभी तिलदान नहीं किया। कार्तिक मास में दीपदान और ब्राह्मणों को भोजन नहीं कराया। वैशाख मास में धान्य का दान नहीं किया और व्यतीतपात योग में सुवर्ण का दान नहीं किया। वैधृति योग में चाँदी का दान नहीं किया और ये सब दान कभी सूर्य संक्रान्ति काल में नहीं दिया। चन्द्रग्रहण-सूर्यग्रहण के समय न जप किया और न अग्नि में आहुति दी।
सर्वत्र नेत्रों में आँसू भरकर दीन वचन कहा करता था। वर्षा, वायु, आतप से दुःखित, दुबला और काले शरीर वाला वह मूर्ख सर्वदा धन के लोभ से पृथिवी पर घूमा करता था। ‘कोई भी इस पामर को कुछ दे देता’ इस तरह बार-बार कहता हुआ, गौ के दोहन समय तक कहीं भी ठहरने में असमर्थ था। लोक के प्राणियों के धिक्काररने से जला हुआ और उद्विग्ना मन होकर घूमता था।
उसका मित्र कोई बनेचर बाटिका का मालिक था। उस कदर्य ने उस माली से बार-बार रोते हुए अपने दुख को कहा। नगर के वासी मेरा नित्य तिरस्कार करते हैं इसलिये उस नगर में मैं नहीं रह सकता हूँ। इस प्रकार कहते हुए उस कदर्य ब्राह्मण के अत्यन्त दीन वचन को सुन कर माली दयार्द्र चित्त हो गया।
शरण में आये हुए उस दीन ब्राह्मण पर माली ने दया कर कहा कि हे कदर्य! इस समय तुम इसी वाटिका में वास करो। नगरवासियों से तिरस्कृत हुआ वह कदर्य उस माली के वचन को सुन प्रसन्न होकर उस वाटिका में रहने लगा। नित्य उस माली के पास वास करता और उसकी आज्ञा का पालन करता था। इसलिये उस कदर्य में माली ने दृढ़ विश्वास किया, और उस कदर्य में अत्यन्त विश्वास होने के कारण माली ने उस कदर्य ब्राह्मण को अपने से छोटा बगीचे का मालिक बना दिया। इसके बाद उस माली ने यह निश्चय किया कि कदर्य हमारा आदमी है। इसलिये वाटिका की चिन्ता को छोड़कर राजमन्दिर का सेवन किया।
राजा के यहाँ उस माली को बहुत कार्य रहता था इसलिए और पराधीनतावश वाटिका की ओर वह कभी नहीं आया। वह अत्यन्त दुर्बल कदर्य उस वाटिका के फलों को आनन्द से अच्छी तरह भोजन करता और लोभवश बचे हुए फलों को बेंच देता था। निर्भय पूर्वक उस बगीचा के फलों को बेंचकर सब धन स्वयं ले लेता था। जब माली पूछता था तो उसके सामने झूठ बोलता था कि नगर मैं फिरता-फिरता, भिक्षा माँगता-माँगता और खाता-खाता तुम्हारे वन की रक्षा करता हूँ। फिर भी पक्षीगण इस बगीचे के फलों को महीने में आकर खा जाते हैं। देखिये, मैंने कुछ खाते हुए पक्षियों को अच्छी तरह से मार डाला है। यहाँ चारों तरफ उन पक्षियों के मांस और पंख गिरे पड़े हैं उन मांस के टुकड़ों को और पंखों को देखकर उसका अत्यन्त विश्वास कर माली चला गया।
इस प्रकार अत्यन्त जर्जर उस दुष्ट कदर्य के वास करते ८७ (सत्तासी) वर्ष व्यतीत हो गये। वह मूढ़ वहाँ ही मर गया और उसको अग्नि और काष्ठ भी नहीं मिला। बिना भोगे पापों का नाश नहीं होता है ऐसा वेद के जानने वाले कहते हैं।
इस कारण हाहाकार करता हुआ यमद्रूतों के मुद्गर के आघात से पीड़ित कष्ट के साथ अत्यन्त भयंकर दीर्घ मार्ग को गया। पूर्व में किये हुए कर्मों को स्मरण करता हुआ और प्रलाप करता हुआ तथा बुद्बुद अक्षरों में कहता हुआ कि अहो! आश्चर्य है। मुझ दुष्ट कदर्य के अज्ञान को देखिये, कृष्णसार से युक्त पवित्र इस भारतखण्ड में देवताओं को भी दुर्लभ मनुष्य शरीर को प्राप्त कर मैंने धन के लोभ से क्या किया? अर्थात् कुछ भी नहीं किया और मैंने जन्म व्यर्थ में खोया तथा मैंने बहुत दिनों में जो धन संचय किया था वह धन तो पराधीन हो गया। इस समय कालपाश में बँधा पराधीन होकर क्या करूँ? प्रथम मनुष्य शरीर को प्राप्त कर कुछ भी पुण्यकर्म नहीं किया। न तो दान दिया, न अग्नि में आहुति दी, न हिमालय की गुफा में जाकर तपस्या की, मकर के सूर्य होने पर माघ मास में न गंगा के जल का सेवन किया। पुरुषोत्तम मास के अन्त में तीन दिन उपवास भी नहीं किया और कार्तिक मास में तारागण के रहते प्रातः स्नान नहीं किया।
मैंने पुरुषार्थ को देनेवाले मनुष्य शरीर को भी पुष्ट नहीं किया। अहो! आश्चर्य है। मेरा संचित धन पृथिवी में निरर्थक गड़ा रह गया। दुष्ट बुद्धि होने के कारण जीवनपर्यन्त जीव को कष्ट दिया और मैंने जठराग्नि को भी कभी अन्न से तृप्त नहीं किया। किसी पर्व के समय भी उत्तम वस्त्र से शरीर को आच्छादित नहीं किया। न तो जाति के लोगों को, न बान्धवों को, न स्वजनों को, न बहिनों को, न दामाद को, न कन्या को, न पिता-माता, छोटे भाई को, न पतिव्रता स्त्री को, न ब्राह्मणों को प्रसन्न किया। इन लोगों को एक बार भी मिठाई से कभी तृप्त नहीं किया। इस प्रकार विलाप करते हुए उस कदर्य को यमदूत यमराज के समीप ले गये।
उसको देखकर चित्रगुप्त ने उसके पाप-पुण्य को देखा और अपने स्वामी धर्मराज से कहा कि हे महाराज! यह ब्राह्मणों में अधम कृपण है। धन के लोभी इस दुष्ट कदर्य का कुछ भी पुण्य नहीं है। वाटिका में रह कर इसने बहुत पाप किया है। माली का विश्वा्सपात्र बन कर साक्षात् स्वयं फलों को चोराया और जो-जो पके हुए फल थे उनको खाया, और जो खाने से बचे हुए फल थे उनको इस दुष्ट ने धन के लोभ से बेच डाला। एक फलों के चोरी का पाप, दूसरा विश्वासघात का पाप। हे प्रभो! ये दो पाप इस कृपण में अत्यन्त उग्र हैं और भी इसमें कई प्रकार के अनेक पाप हैं।
नारद मुनि बोले, 'इस प्रकार ब्रह्मा के पुत्र चित्रगुप्त के वचन को सुन कर अत्यन्त क्रोध से युक्त धर्मराज ने कहा कि यह कदर्य एक हजार बार वानर योनि में जाय और विश्वासघात का फल इसको बाद होवेगा।
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये सप्तविंशोऽध्यायः ॥२७॥