बाईसवें अध्याय की,
जब लिखने लगा हूँ बात ।
श्री प्रभु प्रेरणा प्राप्त कर,
कलम आ गई हाथ ॥
राजा पृथु ने नारद जी से पूछा – हे देवर्षि! कृपया आप अब मुझे यह बताइए कि वृन्दा को मोहित करके विष्णु जी ने क्या किया और फिर वह कहाँ गये?
जब देवता स्तुति कर मौन हो गये तब शंकर जी ने सब देवताओ से कहा – हे ब्रह्मादिक देवताओं! जलन्धर तो मेरा ही अंश था। उसे मैंने तुम्हारे लिए नहीं मारा है, यह मेरी सांसारिक लीला थी, फिर भी आप लोग सत्य कहिए कि इससे आप सुखी हुए या नहीँ?
तब ब्रह्मादिक देवताओं के नेत्र हर्ष से खिल गये और उन्होंने शिवजी को प्रणाम कर विष्णु जी का वह सब वृत्तान्त कह सुनाया जो उन्होंने बड़े प्रयत्न से वृन्दा को मोहित किया था तथा वह अग्नि में प्रवेश कर परमगति को प्राप्त हुई थी। देवताओं ने यह भी कहा कि तभी से वृन्दा की सुन्दरता पर मोहित हुए विष्णु उनकी चिता की राख लपेट इधर-उधर घूमते हैं। अतएव आप उन्हें समझाइए क्योंकि यह सारा चराचर आपके आधीन है।
देवताओं से यह सारा वृत्तान्त सुन शंकर जी ने उन्हें अपनी माया समझाई और कहा कि उसी से मोहित विष्णु भी काम के वश में हो गये हैं। परन्तु महादेवी उमा, त्रिदेवों की जननी सबसे परे वह मूल प्रकृति, परम मनोहर और वही गिरिजा भी कहलाती है। अतएव विष्णु का मोह दूर करने के लिए आप सब उनकी शरण में जाइए। शंकर जी की आज्ञा से सब देवता मूल-प्रकृति को प्रसन्न करने चले। उनके स्थान पर पहुंचकर उनकी बड़ी स्तुति की तब यह आकाशवाणी हुई कि हे देवताओं! मैं ही तीन प्रकार से तीनों गुणों से पृथक होकर स्थित सत्य गुण से गौरा, रजोगुण से लक्ष्मी और तमोगुण से ज्योति रूप हूँ। अतएव अब आप लोग मेरी रक्षा के लिए उन देवियों के पास जाओ तो वे तुम्हारे मनोरथों को पूर्ण कर देगीं।
यह सब सुनकर देवता भगवती के वाक्यों का आदर करते हुए गौरी, लक्ष्मी और सरस्वती को प्रणाम करने लगे। सब देवताओं ने भक्ति पूर्वक उन सब देवियों की प्रार्थना की। उस स्तुति से तीनों देवियाँ प्रकट हो गई। सभी देवताओं ने खुश होकर निवेदन किया तब उन देवियों ने कुछ बीज देकर कहा -इसे ले जाकर बो दो तो तुम्हारे सब कार्य सिद्ध हो जाएंगे। ब्रह्मादिक देवता उन बीजों को लेकर विष्णु जी के पास गये। वृन्दा की चिता-भूमि में डाल दिया। उससे धात्री, मालती और तुलसी प्रकट हुई।
विधात्री के बीज से धात्री, लक्ष्मी के बीज से मालती और गौरी के बीज से तुलसी प्रकट हुई। विष्णु जी ने ज्योंही उन स्त्री रूपवाली वनस्पतियों को देखा तो वे उठ बैठे। कामासक्त चित्त से मोहित हो उनसे याचना करने लगे। धात्री और तुलसी ने उनसे प्रीति की। विष्णु जी सारा दुख भूल देवताओं से नमस्कृत हो अपने लोक बैकुण्ठ में चले। वह पहले की तरह सुखी होकर शंकर जी का स्मरण करने लगे। यह आख्यात शिवजी की भक्ति देने वाला है।
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