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श्री रामचरितमानस: सुन्दर काण्ड: पद 57 (Shri Ramcharitmanas Sundar Kand Pad 57)


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चौपाई:
सुनत सभय मन मुख मुसुकाई ।
कहत दसानन सबहि सुनाई ॥
भूमि परा कर गहत अकासा ।
लघु तापस कर बाग बिलासा ॥1॥
कह सुक नाथ सत्य सब बानी ।
समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी ॥
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा ।
नाथ राम सन तजहु बिरोधा ॥2॥

अति कोमल रघुबीर सुभाऊ ।
जद्यपि अखिल लोक कर राऊ ॥
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही ।
उर अपराध न एकउ धरिही ॥3॥

जनकसुता रघुनाथहि दीजे ।
एतना कहा मोर प्रभु कीजे।
जब तेहिं कहा देन बैदेही ।
चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही ॥4॥

नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ ।
कृपासिंधु रघुनायक जहाँ ॥
करि प्रनामु निज कथा सुनाई ।
राम कृपाँ आपनि गति पाई ॥5॥

रिषि अगस्ति कीं साप भवानी ।
राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी ॥
बंदि राम पद बारहिं बारा ।
मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा ॥6॥

दोहा:
बिनय न मानत जलधि जड़
गए तीन दिन बीति ।
बोले राम सकोप तब
भय बिनु होइ न प्रीति ॥57॥
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हिन्दी भावार्थ

पत्रिका सुनते ही रावण मन में भयभीत हो गया, परंतु मुख से (ऊपर से) मुस्कुराता हुआ वह सबको सुनाकर कहने लगा- जैसे कोई पृथ्वी पर पड़ा हुआ हाथ से आकाश को पकड़ने की चेष्टा करता हो, वैसे ही यह छोटा तपस्वी (लक्ष्मण) वाग्विलास करता है (डींग हाँकता है)॥1॥

शुक (दूत) ने कहा- हे नाथ! अभिमानी स्वभाव को छोड़कर (इस पत्र में लिखी) सब बातों को सत्य समझिए। क्रोध छोड़कर मेरा वचन सुनिए। हे नाथ! श्री रामजी से वैर त्याग दीजिए॥2॥

यद्यपि श्री रघुवीर समस्त लोकों के स्वामी हैं, पर उनका स्वभाव अत्यंत ही कोमल है। मिलते ही प्रभु आप पर कृपा करेंगे और आपका एक भी अपराध वे हृदय में नहीं रखेंगे॥3॥

जानकीजी श्री रघुनाथजी को दे दीजिए। हे प्रभु! इतना कहना मेरा कीजिए। जब उस (दूत) ने जानकीजी को देने के लिए कहा, तब दुष्ट रावण ने उसको लात मारी॥4॥

वह भी (विभीषण की भाँति) चरणों में सिर नवाकर वहीं चला, जहाँ कृपासागर श्री रघुनाथजी थे। प्रणाम करके उसने अपनी कथा सुनाई और श्री रामजी की कृपा से अपनी गति (मुनि का स्वरूप) पाई॥5॥

(शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! वह ज्ञानी मुनि था, अगस्त्य ऋषि के शाप से राक्षस हो गया था। बार-बार श्री रामजी के चरणों की वंदना करके वह मुनि अपने आश्रम को चला गया॥6॥

इधर तीन दिन बीत गए, किंतु जड़ समुद्र विनय नहीं मानता। तब श्री रामजी क्रोध सहित बोले- बिना भय के प्रीति नहीं होती!॥57॥

Granth Ramcharitmanas GranthSundar Kand Granth

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विनय पत्रिका

गोस्वामी तुलसीदास कृत विनयपत्रिका ब्रज भाषा में रचित है। विनय पत्रिका में विनय के पद है। विनयपत्रिका का एक नाम राम विनयावली भी है।

श्री रामचरितमानस: सुन्दर काण्ड: पद 41

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श्री रामचरितमानस: सुन्दर काण्ड: पद 44

कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू । आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू ॥ सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं ।..

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