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श्री रामचरितमानस: सुन्दर काण्ड: पद 45 (Shri Ramcharitmanas Sundar Kand Pad 45)


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चौपाई:
सादर तेहि आगें करि बानर ।
चले जहाँ रघुपति करुनाकर ॥
दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता ।
नयनानंद दान के दाता ॥1॥
बहुरि राम छबिधाम बिलोकी ।
रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी ॥
भुज प्रलंब कंजारुन लोचन ।
स्यामल गात प्रनत भय मोचन ॥2॥

सिंघ कंध आयत उर सोहा ।
आनन अमित मदन मन मोहा ॥
नयन नीर पुलकित अति गाता ।
मन धरि धीर कही मृदु बाता ॥3॥

नाथ दसानन कर मैं भ्राता ।
निसिचर बंस जनम सुरत्राता ॥
सहज पापप्रिय तामस देहा ।
जथा उलूकहि तम पर नेहा ॥4॥

दोहा:
श्रवन सुजसु सुनि आयउँ
प्रभु भंजन भव भीर ।
त्राहि त्राहि आरति हरन
सरन सुखद रघुबीर ॥45॥
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हिन्दी भावार्थ

विभीषणजी को आदर सहित आगे करके वानर फिर वहाँ चले, जहाँ करुणा की खान श्री रघुनाथजी थे। नेत्रों को आनंद का दान देने वाले (अत्यंत सुखद) दोनों भाइयों को विभीषणजी ने दूर ही से देखा॥1॥

फिर शोभा के धाम श्री रामजी को देखकर वे पलक (मारना) रोककर ठिठककर (स्तब्ध होकर) एकटक देखते ही रह गए। भगवान्‌ की विशाल भुजाएँ हैं लाल कमल के समान नेत्र हैं और शरणागत के भय का नाश करने वाला साँवला शरीर है॥2॥

सिंह के से कंधे हैं, विशाल वक्षःस्थल (चौड़ी छाती) अत्यंत शोभा दे रहा है। असंख्य कामदेवों के मन को मोहित करने वाला मुख है। भगवान्‌ के स्वरूप को देखकर विभीषणजी के नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया और शरीर अत्यंत पुलकित हो गया। फिर मन में धीरज धरकर उन्होंने कोमल वचन कहे॥3॥

हे नाथ! मैं दशमुख रावण का भाई हूँ। हे देवताओं के रक्षक! मेरा जन्म राक्षस कुल में हुआ है। मेरा तामसी शरीर है, स्वभाव से ही मुझे पाप प्रिय हैं, जैसे उल्लू को अंधकार पर सहज स्नेह होता है॥4॥

मैं कानों से आपका सुयश सुनकर आया हूँ कि प्रभु भव (जन्म-मरण) के भय का नाश करने वाले हैं। हे दुखियों के दुःख दूर करने वाले और शरणागत को सुख देने वाले श्री रघुवीर! मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए॥45॥

Granth Ramcharitmanas GranthSundar Kand Granth

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विनय पत्रिका

गोस्वामी तुलसीदास कृत विनयपत्रिका ब्रज भाषा में रचित है। विनय पत्रिका में विनय के पद है। विनयपत्रिका का एक नाम राम विनयावली भी है।

श्री रामचरितमानस: सुन्दर काण्ड: पद 41

बुध पुरान श्रुति संमत बानी । कही बिभीषन नीति बखानी ॥ सुनत दसानन उठा रिसाई ।..

श्री रामचरितमानस: सुन्दर काण्ड: पद 44

कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू । आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू ॥ सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं ।..

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