श्री रामचरितमानस की रचना:
चित्रकूट से लौट कर, गोस्वामी जी काशी पहुँचे और वहां प्रह्लाद घाटपर एक ब्रह्मण के घर निवास किया । वहाँ उनकी कवित्व शक्ति स्फुरित हो गयी और वह संस्कृत में रचना करने लगे।
यह एक अद्भुत बात थी कि दिन में वे जितनी कविता रचना करते रात मे सब की सब लुप्त हो जाती। यह घटना रोज घटती परंतु वे समझ नहीं पाते थे कि मुझको क्या करना चाहिये। आठवें दिन तुलसीदास जी को स्वप्न हुआ। भगवान् शंकर ने प्रकट होकर कहा कि तुम अपनी भाषा मे काव्य रचना करो, संस्कृत में नहीं।
नींद उचट गयी तुलसीदास जी उठकर बैठ गये। उनके हृदय मे स्वप्न की आवाज गूंजने लगी। उसी समय भगवान् श्री शंकर और माता पार्वती दोनों ही उनके सामने प्रकट हुए। तुल्सीदास जी ने साष्टांग् प्रणाम किया। शिव जी ने कहा: मातृभाषा में काव्य निर्माण करो, संस्कृत के पचडे में मत पडो। जिससे सबका कल्याण हो वही करना चाहिये। बिना सोचे विचारे अनुकरण करने की आवश्यकता नहीं है। तुम जाकर अयोध्या में रहो और वही काव्य रचना करो। जहां भगवान् की जन्म स्थली है और जो भगवान् श्रीसीताराम जी का नित्य धाम है वही उनकी कथा की रचना करना उचित होगा। मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सामवेद के समान सफल होगी।
इतना कहकर गौरीशंकर जी अन्तर्धान हो गये और उनकी कृपा एवं अपने सौभाग्य की प्रशंसा करते हुए तुलसीदास जी अयोध्या पहुँचे। तुलसीदास जी वही रहने लगे। एक समय दूध पीते थे। भगवान् का भरोसा था। संसार की चिंता उनका स्पर्श नहीं कर पाती थी।
कुछ दिन यों ही बीते, संवत् १६३१ आ गया। उस वर्ष चैत्र शुक्ल रामनवमी के दिन प्राय: वैसा ही योग जुट गया था, जैसा त्रेतायुग मे रामजन्म के दिन था।
उस दिन प्रातः काल तुलसीदास जी सोचने लगे:
क्या इस समय भगवान् का अवतार होने वाला है? आश्चर्य है, अभी इस समय अवतार कैसे हो सकता है?
उसी समय श्री हनुमान जी ने प्रकट होकर तुलसीदास जी को दर्शन दिया। तुलसीदास जी ने प्रणाम् करके पूछा: क्या पृथ्वी पर इस समय भगवान् का अवतार होने वाला है?
हनुमान जी बोले: अवतार तो होगा परंतु मनुष्य शरीर के रूप में नहीं अपितु ग्रन्थ के रूप में। इसके बाद हनुमान जी ने गोस्वामी जी का अभिषेक किया। शिव, पार्वती, गणेश, सरस्वती, नारद और शेषने आशीर्वाद दिये और सबकी कृपा एवं आज्ञा प्राप्त करके श्रीतुलसीदास जी ने श्रीरामचरित मानस की रचना प्रारम्भ की।
दो वर्ष सात महीने छब्बीस दिन मे श्रीरामचरित मानस की रचना समाप्त हुई। संवत् १६३३ मार्गशीर्ष मास के शुक्लपक्ष में रामविवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।
यह कथा पाखंडियो छल-प्रपञ्च को मिटाने वाली है। पवित्र सात्त्विकधर्म का प्रचार करने वाली है। कलिकाल के पाप-कलापका नाश करने वाली है। भगवत् प्रेम की छटा छिटकाने वाली है। संतो के चित्त में भगवत्प्रेम की लहर पैदा करनेवाली है। भगवत् प्रेम श्री शिवजी की कृपा के अधीन है, यह रहस्य बताने वाली है। इस दिव्य ग्रन्थ की समाप्ति हुई, उसी दिन इसपर लिखा गया:
शूभमिति हरि: ओम् तत्सत्। देवताओंने जय जयकार की ध्वनि की और फूल बरसाये। श्री तुलसीदास जी को वरदान दिये, रामायण की प्रशंसा की।
श्री गणेश जी का गोस्वामी जी के पास आकर मानस की कुछ प्रतियां अपने लोक को ले जाना:
श्री रामचरितमानस की रचना के बाद श्री गणेश जी वहाँ आ गए और अपनी दिव्या दिव्य लेखनी से मानस जी की कुछ प्रतियां क्षण भर में लिख ली।
उन प्रतियोगिता को लिखकर गोस्वामी जी से कहा कि इस सुंदर मधुर काव्य का रसपान हम अपने लोक में करेंगे और अन्य गणो को भी कराएँगे। ऐसा कहकर गणेश जी अपने लोक को चले गए। श्री रामचरितमानस क्या है, इस बात को सभी अपने-अपने भाव के अनुसार समझते एवं ग्रहण करते हैं। परंतु अब भी उसकी वास्तविक महिमा का स्पर्श विरले ही पुरुष का सके होंगे।