रामायण से, श्री कृष्ण के पंख की कहानी (Shri Krishna Ke Mukut Par Mayoor Pankh Ki Kahani)


वनवास के दौरान माता सीताजी को प्यास लगी, तभी श्रीरामजी ने चारों ओर देखा, तो उनको दूर-दूर तक जंगल ही जंगल दिख रहा था। कुदरत से प्रार्थना की, हे वन देवता! आसपास जहाँ कहीं पानी हो, वहाँ जाने का मार्ग कृपा कर सुझाईये।
तभी वहाँ एक मयूर ने आकर श्रीरामजी से कहा कि आगे थोड़ी दूर पर एक जलाशय है। चलिए मैं आपका मार्ग पथ प्रदर्शक बनता हूँ, किंतु मार्ग में हमारी भूल चूक होने की संभावना है।

श्रीरामजी ने पूछा: वह क्यों?
तब मयूर ने उत्तर दिया कि, मैं उड़ता हुआ जाऊंगा और आप चलते हुए आएंगे, इसलिए मार्ग मे, मैं अपना एक-एक पंख बिखेरता हुआ जाऊंगा। उस के सहारे आप जलाशय तक पहुँच ही जाओगे।

यहां पर एक बात स्पष्ट कर दूं कि मयूर के पंख, एक विशेष समय एवं एक विशेष ऋतु में ही बिखरते हैं। अगर वह अपनी इच्छा विरुद्ध पंखों को बिखेरेगा, तो उसकी मृत्यु हो जाती है।

और वही हुआ, अंत में जब मयूर अपनी अंतिम सांस ले रहा होता है, तब उसने मन में ही कहा कि वह कितना भाग्यशाली है, कि जो जगत की प्यास बुझाते हैं, ऐसे प्रभु की प्यास बुझाने का उसे सौभाग्य प्राप्त हुआ। मेरा जीवन धन्य हो गया। अब मेरी कोई भी इच्छा शेष नहीं रही।

तभी भगवान श्रीराम ने मयूर से कहा कि मेरे लिए तुमने जो मयूर पंख बिखेरकर, अपने जीवन का त्यागकर मुझ पर जो ऋणानुबंध चढ़ाया है, मैं उस ऋण को अगले जन्म में जरूर चुकाऊंगा।

तुम्हारे पंख अपने सिर पर धारण करके!

तत्पश्चात अगले जन्म में श्री कृष्ण अवतार में उन्होंने अपने मुकुट पर मयूर पंख को धारण कर वचन अनुसार उस मयूर का ऋण उतारा था।

तात्पर्य यही है कि अगर भगवान को ऋण उतारने के लिए पुनः जन्म लेना पड़ता है, तो हम तो मानव हैं। न जाने हम कितने ही ऋणानुबंध से बंधे हैं। उसे उतारने के लिए हमें तो कई जन्म भी कम पड़ जाएंगे।
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