चित्रकूट पहुँच कर तुलसीदास जी मन्दाकिनी नदी के तटपर रामघाट पर ठहर गये। तुलसीदास जी प्रतिदिन मन्दाकीनी में स्नान करते, मंदिर में भगवान के दर्शन करते, रामायण का पाठ करते और निरंतर भगवान् के नाम का जप करते।
एक दिन वे प्रदक्षिणा करने गये। मार्ग में उन्हें अनूरूप भूप-शिरोमणि भगवान राम के दर्शन हुए। उन्होंने देखा कि दो बडे ही सुंदर राजकुमार
दो घोड़ों पर सवार होकर हाथ में धनुष-बाण लिये शिकार खेलने जा रहे हैं। उन्हें देखकर तुलसीदास जी मुग्ध हो गये। परंतु वह कौन हैं यह नहीं पहचान सके, उसके उपरांत श्रीहनुमान जी ने प्रकट होकर सारा भेद बताया।
तुलसीदास जी पश्चाताप करने लगे, उनका हृदय उत्सुकता से भर गया। तब श्रीहनुमान जी ने उन्हें धैर्य दिया कि प्रातःकाल फिर दर्शन होंगे। तब कहीं जाकर तुलसीदास जी को संतोष हुआ।
बुधवार संवत् १६०७ मौनी अमावास्या के दिन प्रात:काल गोस्वामी तुलसीदास जी पूजा के लिये चन्दन घिस रहे थे। तभी श्रीराम एवं श्रीलक्ष्मण ने आकर उनसे तिलक लगाने को कहा। श्रीहनुमान् जी ने सोचा कि शायद इस बार भी तुलसीदास न पहचानें, इसलिये उन्होने तोते का वेष धारण करके चेतावनी का दोहा पढा:
चित्रकूटके घाट पर, भइ संतन की भीर ।
तुलसिदास चंदन घिसें, तिलक देन रघुबीर ॥
इस दोहे को सुनकर तुलसीदास अतृप्त नेत्रो से आत्माराम की मनमोहिनी छबिसुधा का पान करने लगे। देह की सुध भूल गयी, आँखों से आंसूओ की धार बह चली। अब चन्दन कौन घिसे!
भगवान् श्रीराम ने पुन: कहा कि बाबा! मुझे चन्दन दो! परंतु सुनता कौन? तुलसीदास जी बेसुध पड़े थे।
भगवान् ने अपने हाथ से चंदन लेकर अपने एवं तुलसीदास के ललाट में तिलक किया और अंतर्धान हो गये। तुलसीदास जी जल-विहीन मछली की भाँति विरह-वेदना में तड़पने लगे।
सारा दिन बीत गया, उन्हें पता नहीं चला। रात मे अस्कर श्रीहनुमान जी ने जगाया और उनकी दशा सुधार दी। उन दिनों तुलसीदास जी की बडी ख्याति हो गयी थी। उनके द्वारा कई चमत्कार की घटनाएँ भी घट गयीं, जिनसे उनकी प्रतिष्ठा बढ गयी और बहुत से लोग उनके दर्शन को आने लगे।