लिखने लगा हूँ श्रीहरि के,
चरणों में शीश नवाय ।
कार्तिक माहात्म का बने,
यह इक्कीसवाँ अध्याय ॥
अब ब्रह्मा आदि देवता नतमस्तक होकर भगवान शिव की स्तुति करने लगे। वे बोले - हे देवाधिदेव! आप प्रकृति से परे पारब्रह्म और परमेश्वर हैं, आप निर्गुण, निर्विकार व सबके ईश्वर होकर भी नित्य अनेक प्रकार के कर्मों को करते हैं। हे प्रभु! हम ब्रह्मा आदि समस्त देवता आपके दास हैं। हे शंकर जी! हे देवेश! आप प्रसन्न होकर हमारी रक्षा कीजिए। हे शिवजी! हम आपकी प्रजा हैं तथा हम सदैव आपकी शरण में रहते हैं।
नारद जी राजा पृथु से बोले – जब इस प्रकार ब्रह्मा आदि समस्त देवताओं एवं मुनियों ने भगवान शंकर जी की अनेक प्रकार से स्तुति कर के उनके चरण कमलों का ध्यान किया तब भगवान शिव देवताओं को वरदान देकर वहीं अन्तर्ध्यान हो गये। उसके बाद शिवजी का यशोगान करते हुए सभी देवता प्रसन्न होकर अपने-अपने लोक को चले गये।
भगवान शंकर के साथ सागर पुत्र जलन्धर का युद्ध चरित्र पुण्य प्रदान करने वाला तथा समस्त पापों को नष्ट करने वाला है। यह सभी सुखदायक और शिव को भी आनन्ददायक है। इन दोनों आख्यानों को पढ़ने एवं सुनने वाला सुखों को भोगकर अन्त में अमर पद को प्राप्त करता है।
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