माना जाता है कि निषादराज हिरण्यधनु के पुत्र एकलव्य धनुर्विद्या सीखने के लिए संसार के श्रेष्ठ धनुर्धर गुरू द्रोणाचार्य के पास गये परन्तु गुरू द्रोणाचार्य ने एकलव्य को निषाद पुत्र जानकर धनुर्विद्या सीखाने से इनकार कर दिया था क्योंकि गुरू द्रोणाचार्य हस्तिनापुर के सिंहासन के राजक॒मारों को धनुर्विद्या सीखाने के लिए वचनबद्ध थे। जिसके उपरान्त एकलव्य ने गुरू द्रोणाचार्य के चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया और वन में लौटकर उनकी मिट्टी की प्रतिमा बनाई। इसी प्रतिमा को आचार्य की परमोच्च भावना रखकर एकलव्य ने धनुविद्या का अभ्यास किया।
दनकौर में बसा यह द्रोणाचार्य मन्दिर वही स्थान है जहाँ गुरू द्रोणाचार्य की प्रतिमा बनाकर एकलव्य ने धनुविद्या का अभ्यास किया था। अपने कठिन परिश्रम तथा लगातार अभ्यास से वह धनुविद्या में अत्यन्त पारंगत हो गये थे।
एकलव्य के श्रेष्ठ धनुर्धर बनने के पश्चात एक दिन पाण्डव और कौरव राजकमार गुरू द्रोणाचार्य के साथ शिकार के लिए वन भूमि पहुँचे राजकुमारों का कुत्ता एकलव्य के आश्रम में जा पहुँचा तथा जोर-जोर से भौकने लगा। कुत्ते के भौकने से एकलव्य का ध्यान भटकने लगा जिस कारण एकलव्य ने अपनी धनुर्धर विद्या के प्रयोग से कुत्ते के मुँह को बाणों से बन्द कर दिया।
एकलव्य ने इतनी कुशलता से बाण चलाए कि कुत्ते को बाणों से बिल्कुल भी कष्ठ नहीं हुआ। सभी राजकुमारों ने जब उस कुत्ते को देखा तो वह इतने कुशल धनुर्विद्या देखकर चकित हो गए और धनुर्विद्या की प्रशंसा करने लगे। राजकुमारों ने बनवासी वीर को वन भूमि में खोज करते हुए स्वंय अपनी आँखो से एकलव्य को बाण चलाते हुए देखा और एकलव्य के पास जाकर एकलव्य का परिचय पूछे जाने पर एकलव्य ने खुद को निषादराज हिरण्यधनु के पुत्र एवं गुरू द्रोणाचार्य के शिष्य से सम्बोधित किया।
सभी राजकुमार एकलव्य का परिचय पाकर गुरू द्रोणाचार्य के पास पहुँच गये और गुरु द्रोणाचार्य को सभी घटना के बारे में अवगत कराया। राजकुमारों की सभी बातों को सुनकर स्वयं गुरू द्रोणाचार्य एकलव्य से मिलने के लिए वन के लिए निकल गए। एकलव्य ने गुरू द्रोणाचार्य को अपने समीप आते देखा तो आगे बढ़कर उनकी अगवानी की ओर खुद को शिष्य के रूप में के उनके चरणों में समर्पित करके गुरू द्रोणाचार्य की विधि पूर्वक पूजा कर उनका सम्मान किया।
गुरू द्रोणाचार्य ने एकलव्य से बोला कि वीर यदि तुम सच में मुझे अपना गुरू मानते हो तो क्या मुझे गुरूदक्षिणा के रूप में मेरे द्वारा मांगा गया उपहार दे सकोगे। एकलव्य द्वारा गुरू द्रोणाचार्य की बात सुनकर खुशी-खुशी में बोले कि भगवान मैं आपको क्या दू? गुरूदेव में आपको बचन देता हूँ कि आप जो भी मांगोगे मैं आपको बिना किसी संकोच के भेट कर दूंगा। तब गुरू द्रोणाचार्य ने एकलव्य से अपने दाहिने हाथ का अंगूठा गुरू दक्षिणा के रूप में मांग लिया।
यह कथा
गुरू द्रोणाचार्य मन्दिर जनपद गौतमबुद्धनगर (उ. प्र. ) की तहसील सदर के अन्तर्गत दनकौर द्वारा प्रकाशित की गई है।