चौपाई:
तरु पल्लव महुँ रहा लुकाई ।
करइ बिचार करौं का भाई ॥
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा ।
संग नारि बहु किएँ बनावा ॥1॥
बहु बिधि खल सीतहि समुझावा ।
साम दान भय भेद देखावा ॥
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी ।
मंदोदरी आदि सब रानी ॥2॥
तव अनुचरीं करउँ पन मोरा ।
एक बार बिलोकु मम ओरा ॥
तृन धरि ओट कहति बैदेही ।
सुमिरि अवधपति परम सनेही ॥4॥
सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा ।
कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा ॥
अस मन समुझु कहति जानकी ।
खल सुधि नहिं रघुबीर बान की ॥5॥
सठ सूने हरि आनेहि मोहि ।
अधम निलज्ज लाज नहिं तोही ॥6॥
दोहा:
आपुहि सुनि खद्योत सम
रामहि भानु समान।
परुष बचन सुनि काढ़ि असि
बोला अति खिसिआन ॥9॥
हनुमान्जी वृक्ष के पत्तों में छिप रहे और विचार करने लगे कि हे भाई! क्या करूँ (इनका दुःख कैसे दूर करूँ)? उसी समय बहुत सी स्त्रियों को साथ लिए सज-धजकर रावण वहाँ आया॥1॥
उस दुष्ट ने सीताजी को बहुत प्रकार से समझाया। साम, दान, भय और भेद दिखलाया। रावण ने कहा- हे सुमुखि! हे सयानी! सुनो! मंदोदरी आदि सब रानियों को॥2॥
मैं तुम्हारी दासी बना दूँगा, यह मेरा प्रण है। तुम एक बार मेरी ओर देखो तो सही! अपने परम स्नेही कोसलाधीश श्री रामचंद्रजी का स्मरण करके जानकीजी तिनके की आड़ (परदा) करके कहने लगीं॥3॥
हे दशमुख! सुन, जुगनू के प्रकाश से कभी कमलिनी खिल सकती है? जानकीजी फिर कहती हैं- तू (अपने लिए भी) ऐसा ही मन में समझ ले। रे दुष्ट! तुझे श्री रघुवीर के बाण की खबर नहीं है॥4॥
रे पापी! तू मुझे सूने में हर लाया है। रे अधम! निर्लज्ज! तुझे लज्जा नहीं आती?॥5॥
अपने को जुगनू के समान और रामचंद्रजी को सूर्य के समान सुनकर और सीताजी के कठोर वचनों को सुनकर रावण तलवार निकालकर बड़े गुस्से में आकर बोला॥9॥