चौपाई:
नाथ नील नल कपि द्वौ भाई ।
लरिकाई रिषि आसिष पाई ॥
तिन्ह के परस किएँ गिरि भारे ।
तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे ॥1॥
मैं पुनि उर धरि प्रभुताई ।
करिहउँ बल अनुमान सहाई ॥
एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ ।
जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ ॥2॥
एहि सर मम उत्तर तट बासी ।
हतहु नाथ खल नर अघ रासी ॥
सुनि कृपाल सागर मन पीरा ।
तुरतहिं हरी राम रनधीरा ॥3॥
देखि राम बल पौरुष भारी ।
हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी ॥
सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा ।
चरन बंदि पाथोधि सिधावा ॥4॥
छंद:
निज भवन गवनेउ सिंधु
श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ ।
यह चरित कलि मलहर
जथामति दास तुलसी गायऊ ॥
सुख भवन संसय समन
दवन बिषाद रघुपति गुन गना ।
तजि सकल आस भरोस
गावहि सुनहि संतत सठ मना ॥
मासपारायण, चौबीसवाँ विश्राम
दोहा:
सकल सुमंगल दायक
रघुनायक गुन गान ।
सादर सुनहिं ते तरहिं
भव सिंधु बिना जलजान ॥60 ॥
इति श्रीमद्रामचरितमानसे
सकलकलिकलुषविध्वंसने
पञ्चमः सोपानः समाप्तः ।
(सुन्दरकाण्ड समाप्त)
(समुद्र ने कहा) हे नाथ! नील और नल दो वानर भाई हैं। उन्होंने लड़कपन में ऋषि से आशीर्वाद पाया था। उनके स्पर्श कर लेने से ही भारी-भारी पहाड़ भी आपके प्रताप से समुद्र पर तैर जाएँगे॥1॥
मैं भी प्रभु की प्रभुता को हृदय में धारण कर अपने बल के अनुसार (जहाँ तक मुझसे बन पड़ेगा) सहायता करूँगा। हे नाथ! इस प्रकार समुद्र को बँधाइए, जिससे तीनों लोकों में आपका सुंदर यश गाया जाए॥2॥
इस बाण से मेरे उत्तर तट पर रहने वाले पाप के राशि दुष्ट मनुष्यों का वध कीजिए। कृपालु और रणधीर श्री रामजी ने समुद्र के मन की पीड़ा सुनकर उसे तुरंत ही हर लिया (अर्थात् बाण से उन दुष्टों का वध कर दिया)॥3॥
श्री रामजी का भारी बल और पौरुष देखकर समुद्र हर्षित होकर सुखी हो गया। उसने उन दुष्टों का सारा चरित्र प्रभु को कह सुनाया। फिर चरणों की वंदना करके समुद्र चला गया॥4॥
छंद:
समुद्र अपने घर चला गया, श्री रघुनाथजी को यह मत (उसकी सलाह) अच्छा लगा। यह चरित्र कलियुग के पापों को हरने वाला है, इसे तुलसीदास ने अपनी बुद्धि के अनुसार गाया है। श्री रघुनाथजी के गुण समूह सुख के धाम, संदेह का नाश करने वाले और विषाद का दमन करने वाले हैं। अरे मूर्ख मन! तू संसार का सब आशा-भरोसा त्यागकर निरंतर इन्हें गा और सुन।
श्री रघुनाथजी का गुणगान संपूर्ण सुंदर मंगलों का देने वाला है। जो इसे आदर सहित सुनेंगे, वे बिना किसी जहाज (अन्य साधन) के ही भवसागर को तर जाएँगे॥60॥
कलियुग के समस्त पापों का नाश करने वाले श्री रामचरित मानस का यह पाँचवाँ सोपान समाप्त हुआ। (सुंदरकाण्ड समाप्त)