चौपाई:
अस कहि करत दंडवत देखा ।
तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा ॥
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा ।
भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा ॥1॥
अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी ।
बोले बचन भगत भयहारी ॥
कहु लंकेस सहित परिवारा ।
कुसल कुठाहर बास तुम्हारा ॥2॥
खल मंडलीं बसहु दिनु राती ।
सखा धरम निबहइ केहि भाँती ॥
मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती ।
अति नय निपुन न भाव अनीती ॥3॥
बरु भल बास नरक कर ताता ।
दुष्ट संग जनि देइ बिधाता ॥
अब पद देखि कुसल रघुराया ।
जौं तुम्ह कीन्ह जानि जन दाया ॥4॥
दोहा:
तब लगि कुसल न जीव कहुँ
सपनेहुँ मन बिश्राम ।
जब लगि भजत न राम कहुँ
सोक धाम तजि काम ॥46॥
प्रभु ने उन्हें ऐसा कहकर दंडवत् करते देखा तो वे अत्यंत हर्षित होकर तुरंत उठे। विभीषणजी के दीन वचन सुनने पर प्रभु के मन को बहुत ही भाए। उन्होंने अपनी विशाल भुजाओं से पकड़कर उनको हृदय से लगा लिया॥1॥
छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित गले मिलकर उनको अपने पास बैठाकर श्री रामजी भक्तों के भय को हरने वाले वचन बोले- हे लंकेश! परिवार सहित अपनी कुशल कहो। तुम्हारा निवास बुरी जगह पर है॥2॥
दिन-रात दुष्टों की मंडली में बसते हो। (ऐसी दशा में) हे सखे! तुम्हारा धर्म किस प्रकार निभता है? मैं तुम्हारी सब रीति (आचार-व्यवहार) जानता हूँ। तुम अत्यंत नीतिनिपुण हो, तुम्हें अनीति नहीं सुहाती॥3॥
हे तात! नरक में रहना वरन् अच्छा है, परंतु विधाता दुष्ट का संग (कभी) न दे। (विभीषणजी ने कहा-) हे रघुनाथजी! अब आपके चरणों का दर्शन कर कुशल से हूँ, जो आपने अपना सेवक जानकर मुझ पर दया की है॥4॥
तब तक जीव की कुशल नहीं और न स्वप्न में भी उसके मन को शांति है, जब तक वह शोक के घर काम (विषय-कामना) को छोड़कर श्री रामजी को नहीं भजता॥46॥