चौपाई:
कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू ।
आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू ॥
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं ।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ॥1॥
पापवंत कर सहज सुभाऊ ।
भजनु मोर तेहि भाव न काऊ ॥
जौं पै दुष्टहदय सोइ होई ।
मोरें सनमुख आव कि सोई ॥2॥
निर्मल मन जन सो मोहि पावा ।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा ॥
भेद लेन पठवा दससीसा ।
तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा ॥3॥
जग महुँ सखा निसाचर जेते ।
लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते ॥
जौं सभीत आवा सरनाई ।
रखिहउँ ताहि प्रान की नाई ॥4॥
दोहा:
उभय भाँति तेहि आनहु
हँसि कह कृपानिकेत ।
जय कृपाल कहि कपि
चले अंगद हनू समेत ॥44॥
जिसे करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या लगी हो, शरण में आने पर मैं उसे भी नहीं त्यागता। जीव ज्यों ही मेरे सम्मुख होता है, त्यों ही उसके करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं॥1॥
पापी का यह सहज स्वभाव होता है कि मेरा भजन उसे कभी नहीं सुहाता। यदि वह (रावण का भाई) निश्चय ही दुष्ट हृदय का होता तो क्या वह मेरे सम्मुख आ सकता था?॥2॥
जो मनुष्य निर्मल मन का होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल-छिद्र नहीं सुहाते। यदि उसे रावण ने भेद लेने को भेजा है, तब भी हे सुग्रीव! अपने को कुछ भी भय या हानि नहीं है॥3॥
क्योंकि हे सखे! जगत में जितने भी राक्षस हैं, लक्ष्मण क्षणभर में उन सबको मार सकते हैं और यदि वह भयभीत होकर मेरी शरण आया है तो मैं तो उसे प्राणों की तरह रखूँगा॥4॥
कृपा के धाम श्री रामजी ने हँसकर कहा- दोनों ही स्थितियों में उसे ले आओ। तब अंगद और हनुमान् सहित सुग्रीवजी ' कृ पालु श्री रामजी की जय हो' कहते हुए चले॥44॥
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