श्री रामचरितमानस: सुन्दर काण्ड: पद 43 (Shri Ramcharitmanas Sundar Kand Pad 43)


चौपाई:
एहि बिधि करत सप्रेम बिचारा ।
आयउ सपदि सिंधु एहिं पारा ॥
कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा ।
जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा ॥1॥
ताहि राखि कपीस पहिं आए ।
समाचार सब ताहि सुनाए ॥
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई ।
आवा मिलन दसानन भाई ॥2॥

कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा ।
कहइ कपीस सुनहु नरनाहा ॥
जानि न जाइ निसाचर माया ।
कामरूप केहि कारन आया ॥3॥

भेद हमार लेन सठ आवा ।
राखिअ बाँधि मोहि अस भावा ॥
सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी ।
मम पन सरनागत भयहारी ॥4॥

सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना ।
सरनागत बच्छल भगवाना ॥5॥

दोहा:
सरनागत कहुँ जे तजहिं
निज अनहित अनुमानि ।
ते नर पावँर पापमय
तिन्हहि बिलोकत हानि ॥43॥
हिन्दी भावार्थ
इस प्रकार प्रेमसहित विचार करते हुए वे शीघ्र ही समुद्र के इस पार (जिधर श्री रामचंद्रजी की सेना थी) आ गए। वानरों ने विभीषण को आते देखा तो उन्होंने जाना कि शत्रु का कोई खास दूत है॥1॥

उन्हें (पहरे पर) ठहराकर वे सुग्रीव के पास आए और उनको सब समाचार कह सुनाए। सुग्रीव ने (श्री रामजी के पास जाकर) कहा- हे रघुनाथजी! सुनिए, रावण का भाई (आप से) मिलने आया है॥2॥

प्रभु श्री रामजी ने कहा- हे मित्र! तुम क्या समझते हो (तुम्हारी क्या राय है)? वानरराज सुग्रीव ने कहा- हे महाराज! सुनिए, राक्षसों की माया जानी नहीं जाती। यह इच्छानुसार रूप बदलने वाला (छली) न जाने किस कारण आया है॥3॥

(जान पड़ता है) यह मूर्ख हमारा भेद लेने आया है, इसलिए मुझे तो यही अच्छा लगता है कि इसे बाँध रखा जाए। (श्री रामजी ने कहा-) हे मित्र! तुमने नीति तो अच्छी विचारी, परंतु मेरा प्रण तो है शरणागत के भय को हर लेना!॥4॥

प्रभु के वचन सुनकर हनुमान्‌जी हर्षित हुए (और मन ही मन कहने लगे कि) भगवान्‌ कैसे शरणागतवत्सल (शरण में आए हुए पर पिता की भाँति प्रेम करने वाले) हैं॥5॥

(श्री रामजी फिर बोले-) जो मनुष्य अपने अहित का अनुमान करके शरण में आए हुए का त्याग कर देते हैं, वे पामर (क्षुद्र) हैं, पापमय हैं, उन्हें देखने में भी हानि है (पाप लगता है)॥43॥
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विनय पत्रिका

गोस्वामी तुलसीदास कृत विनयपत्रिका ब्रज भाषा में रचित है। विनय पत्रिका में विनय के पद है। विनयपत्रिका का एक नाम राम विनयावली भी है।

श्री रामचरितमानस: सुन्दर काण्ड: पद 41

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