चौपाई:
तात राम नहिं नर भूपाला ।
भुवनेस्वर कालहु कर काला ॥
ब्रह्म अनामय अज भगवंता ।
ब्यापक अजित अनादि अनंता ॥1॥
गो द्विज धेनु देव हितकारी ।
कृपासिंधु मानुष तनुधारी ॥
जन रंजन भंजन खल ब्राता ।
बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता ॥2॥
ताहि बयरु तजि नाइअ माथा ।
प्रनतारति भंजन रघुनाथा ॥
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही ।
भजहु राम बिनु हेतु सनेही ॥3॥
सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा ।
बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा ॥
जासु नाम त्रय ताप नसावन ।
सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन ॥4॥
दोहा:
बार बार पद लागउँ
बिनय करउँ दससीस ।
परिहरि मान मोह मद
भजहु कोसलाधीस ॥39 (क)॥
मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन
कहि पठई यह बात ।
तुरत सो मैं प्रभु सन कही
पाइ सुअवसरु तात ॥39 (ख)॥
हिन्दी भावार्थ
हे तात! राम मनुष्यों के ही राजा नहीं हैं। वे समस्त लोकों के स्वामी और काल के भी काल हैं। वे (संपूर्ण ऐश्वर्य, यश, श्री, धर्म, वैराग्य एवं ज्ञान के भंडार) भगवान् हैं, वे निरामय (विकाररहित), अजन्मे, व्यापक, अजेय, अनादि और अनंत ब्रह्म हैं॥1॥
उन कृपा के समुद्र भगवान् ने पृथ्वी, ब्राह्मण, गो और देवताओं का हित करने के लिए ही मनुष्य शरीर धारण किया है। हे भाई! सुनिए, वे सेवकों को आनंद देने वाले, दुष्टों के समूह का नाश करने वाले और वेद तथा धर्म की रक्षा करने वाले हैं॥2॥
वैर त्यागकर उन्हें मस्तक नवाइए। वे श्री रघुनाथजी शरणागत का दुःख नाश करने वाले हैं। हे नाथ! उन प्रभु (सर्वेश्वर) को जानकीजी दे दीजिए और बिना ही कारण स्नेह करने वाले श्री रामजी को भजिए॥3॥
जिसे संपूर्ण जगत् से द्रोह करने का पाप लगा है, शरण जाने पर प्रभु उसका भी त्याग नहीं करते। जिनका नाम तीनों तापों का नाश करने वाला है, वे ही प्रभु (भगवान्) मनुष्य रूप में प्रकट हुए हैं। हे रावण! हृदय में यह समझ लीजिए॥4॥
हे दशशीश! मैं बार-बार आपके चरणों लगता हूँ और विनती करता हूँ कि मान, मोह और मद को त्यागकर आप कोसलपति श्री रामजी का भजन कीजिए॥39 (क)॥
मुनि पुलस्त्यजी ने अपने शिष्य के हाथ यह बात कहला भेजी है। हे तात! सुंदर अवसर पाकर मैंने तुरंत ही वह बात प्रभु (आप) से कह दी॥39 (ख)॥
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