चौपाई:
चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही ।
रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही ॥
नाथ जुगल लोचन भरि बारी ।
बचन कहे कछु जनककुमारी ॥1॥
अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना ।
दीन बंधु प्रनतारति हरना ॥
मन क्रम बचन चरन अनुरागी ।
केहि अपराध नाथ हौं त्यागी ॥2॥
अवगुन एक मोर मैं माना ।
बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना ॥
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा ।
निसरत प्रान करिहिं हठि बाधा ॥3॥
बिरह अगिनि तनु तूल समीरा ।
स्वास जरइ छन माहिं सरीरा ॥
नयन स्त्रवहि जलु निज हित लागी ।
जरैं न पाव देह बिरहागी ॥4॥
सीता के अति बिपति बिसाला ।
बिनहिं कहें भलि दीनदयाला ॥5॥
दोहा:
निमिष निमिष करुनानिधि
जाहिं कलप सम बीति ।
बेगि चलिय प्रभु आनिअ
भुज बल खल दल जीति ॥31॥
चलते समय उन्होंने मुझे चूड़ामणि (उतारकर) दी। श्री रघुनाथजी ने उसे लेकर हृदय से लगा लिया। (हनुमान्जी ने फिर कहा-) हे नाथ! दोनों नेत्रों में जल भरकर जानकीजी ने मुझसे कुछ वचन कहे-॥1॥
छोटे भाई समेत प्रभु के चरण पकड़ना (और कहना कि) आप दीनबंधु हैं, शरणागत के दुःखों को हरने वाले हैं और मैं मन, वचन और कर्म से आपके चरणों की अनुरागिणी हूँ। फिर स्वामी (आप) ने मुझे किस अपराध से त्याग दिया?॥2॥
(हाँ) एक दोष मैं अपना (अवश्य) मानती हूँ कि आपका वियोग होते ही मेरे प्राण नहीं चले गए, किंतु हे नाथ! यह तो नेत्रों का अपराध है जो प्राणों के निकलने में हठपूर्वक बाधा देते हैं॥3॥
विरह अग्नि है, शरीर रूई है और श्वास पवन है, इस प्रकार (अग्नि और पवन का संयोग होने से) यह शरीर क्षणमात्र में जल सकता है, परंतु नेत्र अपने हित के लिए प्रभु का स्वरूप देखकर (सुखी होने के लिए) जल (आँसू) बरसाते हैं, जिससे विरह की आग से भी देह जलने नहीं पाती॥4॥
सीताजी की विपत्ति बहुत बड़ी है। हे दीनदयालु! वह बिना कही ही अच्छी है (कहने से आपको बड़ा क्लेश होगा)॥5॥
हे करुणानिधान! उनका एक-एक पल कल्प के समान बीतता है। अतः हे प्रभु! तुरंत चलिए और अपनी भुजाओं के बल से दुष्टों के दल को जीतकर सीताजी को ले आइए॥31॥