चौपाई:
ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहि मारा ।
परतिहुँ बार कटकु संघारा ॥
तेहि देखा कपि मुरुछित भयऊ ।
नागपास बाँधेसि लै गयऊ ॥1॥
जासु नाम जपि सुनहु भवानी ।
भव बंधन काटहिं नर ग्यानी ॥
तासु दूत कि बंध तरु आवा ।
प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा ॥2॥
कपि बंधन सुनि निसिचर धाए ।
कौतुक लागि सभाँ सब आए ॥
दसमुख सभा दीखि कपि जाई ।
कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई ॥3॥
कर जोरें सुर दिसिप बिनीता ।
भृकुटि बिलोकत सकल सभीता ॥
देखि प्रताप न कपि मन संका ।
जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका ॥4॥
दोहा:
कपिहि बिलोकि दसानन
बिहसा कहि दुर्बाद ।
सुत बध सुरति कीन्हि
पुनि उपजा हृदयँ बिषाद ॥20॥
उसने हनुमान्जी को ब्रह्मबाण मारा, (जिसके लगते ही वे वृक्ष से नीचे गिर पड़े), परंतु गिरते समय भी उन्होंने बहुत सी सेना मार डाली। जब उसने देखा कि हनुमान्जी मूर्छित हो गए हैं, तब वह उनको नागपाश से बाँधकर ले गया॥1॥
(शिवजी कहते हैं-) हे भवानी सुनो, जिनका नाम जपकर ज्ञानी (विवेकी) मनुष्य संसार (जन्म-मरण) के बंधन को काट डालते हैं, उनका दूत कहीं बंधन में आ सकता है? किंतु प्रभु के कार्य के लिए हनुमान्जी ने स्वयं अपने को बँधा लिया॥2॥
बंदर का बाँधा जाना सुनकर राक्षस दौड़े और कौतुक के लिए (तमाशा देखने के लिए) सब सभा में आए। हनुमान्जी ने जाकर रावण की सभा देखी। उसकी अत्यंत प्रभुता (ऐश्वर्य) कुछ कही नहीं जाती॥3॥
देवता और दिक्पाल हाथ जोड़े बड़ी नम्रता के साथ भयभीत हुए सब रावण की भौं ताक रहे हैं। (उसका रुख देख रहे हैं) उसका ऐसा प्रताप देखकर भी हनुमान्जी के मन में जरा भी डर नहीं हुआ। वे ऐसे निःशंख खड़े रहे, जैसे सर्पों के समूह में गरुड़ निःशंख निर्भय) रहते हैं॥4॥
हनुमान्जी को देखकर रावण दुर्वचन कहता हुआ खूब हँसा। फिर पुत्र वध का स्मरण किया तो उसके हृदय में विषाद उत्पन्न हो गया॥20॥