चौपाई:
जात पवनसुत देवन्ह देखा ।
जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा ॥
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता ।
पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता ॥1॥
आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा ।
सुनत बचन कह पवनकुमारा ॥
राम काजु करि फिरि मैं आवौं ।
सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं ॥2॥
तब तव बदन पैठिहउँ आई ।
सत्य कहउँ मोहि जान दे माई ॥
कबनेहुँ जतन देइ नहिं जाना ।
ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना ॥3॥
जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा।
कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा ॥
सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ।
तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ ॥4॥
जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा।
तासु दून कपि रूप देखावा ॥
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा।
अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा ॥5॥
बदन पइठि पुनि बाहेर आवा ।
मागा बिदा ताहि सिरु नावा ॥
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा
बुधि बल मरमु तोर मै पावा ॥6॥
दोहा:
राम काजु सबु करिहहु
तुम्ह बल बुद्धि निधान ।
आसिष देह गई सो
हरषि चलेउ हनुमान ॥2॥
देवताओं ने पवनपुत्र हनुमान् जी को जाते हुए देखा। उनकी विशेष बल-बुद्धि को जानने के लिए (परीक्षार्थ) उन्होंने सुरसा नामक सर्पों की माता को भेजा, उसने आकर हनुमान् जी से यह बात कही ॥1॥
आज देवताओं ने मुझे भोजन दिया है। यह वचन सुनकर पवनकुमार हनुमान् जी ने कहा- श्री रामजी का कार्य करके मैं लौट आऊँ और सीताजी की खबर प्रभु को सुना दूँ ॥2॥
तब मैं आकर तुम्हारे मुँह में घुस जाऊँगा (तुम मुझे खा लेना)। हे माता! मैं सत्य कहता हूँ, अभी मुझे जाने दे। जब किसी भी उपाय से उसने जाने नहीं दिया, तब हनुमान् जी ने कहा- तो फिर मुझे खा न ले ॥3॥
उसने योजन भर (चार कोस में) मुँह फैलाया। तब हनुमान्जी ने अपने शरीर को उससे दूना बढ़ा लिया। उसने सोलह योजन का मुख किया। हनुमान् जी तुरंत ही बत्तीस योजन के हो गए ॥4॥
जैसे-जैसे सुरसा मुख का विस्तार बढ़ाती थी, हनुमान् जी उसका दूना रूप दिखलाते थे। उसने सौ योजन (चार सौ कोस का) मुख किया। तब हनुमान् जी ने बहुत ही छोटा रूप धारण कर लिया ॥5॥
और उसके मुख में घुसकर (तुरंत) फिर बाहर निकल आए और उसे सिर नवाकर विदा माँगने लगे। (उसने कहा-) मैंने तुम्हारे बुद्धि-बल का भेद पा लिया, जिसके लिए देवताओं ने मुझे भेजा था ॥6॥
तुम श्री रामचंद्र जी का सब कार्य करोगे, क्योंकि तुम बल-बुद्धि के भंडार हो। यह आशीर्वाद देकर वह चली गई, तब हनुमान् जी हर्षित होकर चले ॥2॥