चौपाई:
मन संतोष सुनत कपि बानी ।
भगति प्रताप तेज बल सानी ॥
आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना ।
होहु तात बल सील निधाना ॥1॥
अजर अमर गुननिधि सुत होहू ।
करहुँ बहुत रघुनायक छोहू ॥
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना ।
निर्भर प्रेम मगन हनुमाना ॥2॥
बार बार नाएसि पद सीसा ।
बोला बचन जोरि कर कीसा ॥
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता ।
आसिष तव अमोघ बिख्याता ॥3॥
सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा ।
लागि देखि सुंदर फल रूखा ॥
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी ।
परम सुभट रजनीचर भारी ॥4॥
तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं ।
जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं ॥5॥
दोहा:
देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु ॥17॥
भक्ति, प्रताप, तेज और बल से सनी हुई हनुमान्जी की वाणी सुनकर सीताजी के मन में संतोष हुआ। उन्होंने श्री रामजी के प्रिय जानकर हनुमान्जी को आशीर्वाद दिया कि हे तात! तुम बल और शील के निधान होओ॥1॥
हे पुत्र! तुम अजर (बुढ़ापे से रहित), अमर और गुणों के खजाने होओ। श्री रघुनाथजी तुम पर बहुत कृपा करें। 'प्रभु कृपा करें' ऐसा कानों से सुनते ही हनुमान्जी पूर्ण प्रेम में मग्न हो गए॥2॥
हनुमान्जी ने बार-बार सीताजी के चरणों में सिर नवाया और फिर हाथ जोड़कर कहा- हे माता! अब मैं कृतार्थ हो गया। आपका आशीर्वाद अमोघ (अचूक) है, यह बात प्रसिद्ध है॥3॥
हे माता! सुनो, सुंदर फल वाले वृक्षों को देखकर मुझे बड़ी ही भूख लग आई है। (सीताजी ने कहा-) हे बेटा! सुनो, बड़े भारी योद्धा राक्षस इस वन की रखवाली करते हैं॥4॥
(हनुमान्जी ने कहा-) हे माता! यदि आप मन में सुख मानें (प्रसन्न होकर) आज्ञा दें तो मुझे उनका भय तो बिलकुल नहीं है॥5॥
हनुमान्जी को बुद्धि और बल में निपुण देखकर जानकीजी ने कहा- जाओ। हे तात! श्री रघुनाथजी के चरणों को हृदय में धारण करके मीठे फल खाओ॥17॥