चौपाई:
जौं रघुबीर होति सुधि पाई ।
करते नहिं बिलंबु रघुराई ॥
रामबान रबि उएँ जानकी ।
तम बरूथ कहँ जातुधान की ॥1॥
अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई ।
प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई ॥
कछुक दिवस जननी धरु धीरा ।
कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा ॥2॥
निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं ।
तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं ॥
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना ।
जातुधान अति भट बलवाना ॥3॥
मोरें हृदय परम संदेहा ।
सुनि कपि प्रगट कीन्ह निज देहा ॥
कनक भूधराकार सरीरा ।
समर भयंकर अतिबल बीरा ॥4॥
सीता मन भरोस तब भयऊ ।
पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ ॥5॥
दोहा:
सुनु माता साखामृग नहिं
बल बुद्धि बिसाल ।
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि
खाइ परम लघु ब्याल ॥16॥
श्री रामचंद्रजी ने यदि खबर पाई होती तो वे बिलंब न करते। हे जानकीजी! रामबाण रूपी सूर्य के उदय होने पर राक्षसों की सेना रूपी अंधकार कहाँ रह सकता है?॥1॥
हे माता! मैं आपको अभी यहाँ से लिवा जाऊँ, पर श्री रामचंद्रजी की शपथ है, मुझे प्रभु (उन) की आज्ञा नहीं है। (अतः) हे माता! कुछ दिन और धीरज धरो। श्री रामचंद्रजी वानरों सहित यहाँ आएँगे॥2॥
और राक्षसों को मारकर आपको ले जाएँगे। नारद आदि (ऋषि-मुनि) तीनों लोकों में उनका यश गाएँगे। (सीताजी ने कहा-) हे पुत्र! सब वानर तुम्हारे ही समान (नन्हें-नन्हें से) होंगे, राक्षस तो बड़े बलवान, योद्धा हैं॥3॥
अतः मेरे हृदय में बड़ा भारी संदेह होता है (कि तुम जैसे बंदर राक्षसों को कैसे जीतेंगे!)। यह सुनकर हनुमान्जी ने अपना शरीर प्रकट किया। सोने के पर्वत (सुमेरु) के आकार का (अत्यंत विशाल) शरीर था, जो युद्ध में शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न करने वाला, अत्यंत बलवान् और वीर था॥4॥
तब (उसे देखकर) सीताजी के मन में विश्वास हुआ। हनुमान्जी ने फिर छोटा रूप धारण कर लिया॥5॥
हे माता! सुनो, वानरों में बहुत बल-बुद्धि नहीं होती, परंतु प्रभु के प्रताप से बहुत छोटा सर्प भी गरुड़ को खा सकता है। (अत्यंत निर्बल भी महान् बलवान् को मार सकता है)॥16॥