चौपाई:
कहेउ राम बियोग तव सीता ।
मो कहुँ सकल भए बिपरीता ॥
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू ।
कालनिसा सम निसि ससि भानू ॥1॥
कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा ।
बारिद तपत तेल जनु बरिसा ॥
जे हित रहे करत तेइ पीरा ।
उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा ॥2॥
कहेहू तें कछु दुख घटि होई ।
काहि कहौं यह जान न कोई ॥
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा ।
जानत प्रिया एकु मनु मोरा ॥3॥
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं ।
जानु प्रीति रसु एतेनहि माहीं ॥
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही ।
मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही ॥4॥
कह कपि हृदयँ धीर धरु माता ।
सुमिरु राम सेवक सुखदाता ॥
उर आनहु रघुपति प्रभुताई ।
सुनि मम बचन तजहु कदराई ॥5॥
दोहा:
निसिचर निकर पतंग सम
रघुपति बान कृसानु ।
जननी हृदयँ धीर धरु
जरे निसाचर जानु ॥15 ॥
(हनुमान्जी बोले-) श्री रामचंद्रजी ने कहा है कि हे सीते! तुम्हारे वियोग में मेरे लिए सभी पदार्थ प्रतिकूल हो गए हैं। वृक्षों के नए-नए कोमल पत्ते मानो अग्नि के समान, रात्रि कालरात्रि के समान, चंद्रमा सूर्य के समान॥1॥
और कमलों के वन भालों के वन के समान हो गए हैं। मेघ मानो खौलता हुआ तेल बरसाते हैं। जो हित करने वाले थे, वे ही अब पीड़ा देने लगे हैं। त्रिविध (शीतल, मंद, सुगंध) वायु साँप के श्वास के समान (जहरीली और गरम) हो गई है॥2॥
मन का दुःख कह डालने से भी कुछ घट जाता है। पर कहूँ किससे? यह दुःख कोई जानता नहीं। हे प्रिये! मेरे और तेरे प्रेम का तत्त्व (रहस्य) एक मेरा मन ही जानता है॥3॥
और वह मन सदा तेरे ही पास रहता है। बस, मेरे प्रेम का सार इतने में ही समझ ले। प्रभु का संदेश सुनते ही जानकीजी प्रेम में मग्न हो गईं। उन्हें शरीर की सुध न रही॥4॥
हनुमान्जी ने कहा- हे माता! हृदय में धैर्य धारण करो और सेवकों को सुख देने वाले श्री रामजी का स्मरण करो। श्री रघुनाथजी की प्रभुता को हृदय में लाओ और मेरे वचन सुनकर कायरता छोड़ दो॥5॥
राक्षसों के समूह पतंगों के समान और श्री रघुनाथजी के बाण अग्नि के समान हैं। हे माता! हृदय में धैर्य धारण करो और राक्षसों को जला ही समझो॥15॥