चौपाई:
तब देखी मुद्रिका मनोहर ।
राम नाम अंकित अति सुंदर ॥
चकित चितव मुदरी पहिचानी
हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी ॥1॥
जीति को सकइ अजय रघुराई ।
माया तें असि रचि नहिं जाई ॥
सीता मन बिचार कर नाना ।
मधुर बचन बोलेउ हनुमाना ॥2॥
रामचंद्र गुन बरनैं लागा ।
सुनतहिं सीता कर दुख भागा ॥
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई ।
आदिहु तें सब कथा सुनाई ॥3॥
श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई ।
कहि सो प्रगट होति किन भाई ॥
तब हनुमंत निकट चलि गयऊ ।
फिरि बैंठीं मन बिसमय भयऊ ॥4॥
राम दूत मैं मातु जानकी ।
सत्य सपथ करुनानिधान की ॥
यह मुद्रिका मातु मैं आनी ।
दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी ॥5॥
नर बानरहि संग कहु कैसें ।
कहि कथा भइ संगति जैसें ॥6॥
दोहा:
कपि के बचन सप्रेम सुनि
उपजा मन बिस्वास ॥
जाना मन क्रम बचन यह
कृपासिंधु कर दास ॥13 ॥
तब उन्होंने राम-नाम से अंकित अत्यंत सुंदर एवं मनोहर अँगूठी देखी। अँगूठी को पहचानकर सीताजी आश्चर्यचकित होकर उसे देखने लगीं और हर्ष तथा विषाद से हृदय में अकुला उठीं॥1॥
(वे सोचने लगीं-) श्री रघुनाथजी तो सर्वथा अजेय हैं, उन्हें कौन जीत सकता है? और माया से ऐसी (माया के उपादान से सर्वथा रहित दिव्य, चिन्मय) अँगूठी बनाई नहीं जा सकती। सीताजी मन में अनेक प्रकार के विचार कर रही थीं। इसी समय हनुमान्जी मधुर वचन बोले-॥2॥
वे श्री रामचंद्रजी के गुणों का वर्णन करने लगे, (जिनके) सुनते ही सीताजी का दुःख भाग गया। वे कान और मन लगाकर उन्हें सुनने लगीं। हनुमान्जी ने आदि से लेकर अब तक की सारी कथा कह सुनाई॥3॥
(सीताजी बोलीं-) जिसने कानों के लिए अमृत रूप यह सुंदर कथा कही, वह हे भाई! प्रकट क्यों नहीं होता? तब हनुमान्जी पास चले गए। उन्हें देखकर सीताजी फिरकर (मुख फेरकर) बैठ गईं? उनके मन में आश्चर्य हुआ॥4॥
(हनुमान्जी ने कहा-) हे माता जानकी मैं श्री रामजी का दूत हूँ। करुणानिधान की सच्ची शपथ करता हूँ, हे माता! यह अँगूठी मैं ही लाया हूँ। श्री रामजी ने मुझे आपके लिए यह सहिदानी (निशानी या पहिचान) दी है॥5॥
(सीताजी ने पूछा-) नर और वानर का संग कहो कैसे हुआ? तब हनुमानजी ने जैसे संग हुआ था, वह सब कथा कही॥6॥
हनुमान्जी के प्रेमयक्त वचन सुनकर सीताजी के मन में विश्वास उत्पन्न हो गया, उन्होंने जान लिया कि यह मन, वचन और कर्म से कृपासागर श्री रघुनाथजी का दास है॥13॥