चौपाई:
रिजटा सन बोली कर जोरी ।
मातु बिपति संगिनि तैं मोरी ॥
तजौं देह करु बेगि उपाई ।
दुसहु बिरहु अब नहिं सहि जाई ॥1॥
आनि काठ रचु चिता बनाई ।
मातु अनल पुनि देहि लगाई ॥
सत्य करहि मम प्रीति सयानी ।
सुनै को श्रवन सूल सम बानी ॥2॥
सुनत बचन पद गहि समुझाएसि ।
प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि ॥
निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी ।
अस कहि सो निज भवन सिधारी ॥3॥
कह सीता बिधि भा प्रतिकूला ।
मिलहि न पावक मिटिहि न सूला ॥
देखिअत प्रगट गगन अंगारा ।
अवनि न आवत एकउ तारा ॥4॥
पावकमय ससि स्त्रवत न आगी ।
मानहुँ मोहि जानि हतभागी ॥
सुनहि बिनय मम बिटप असोका ।
सत्य नाम करु हरु मम सोका ॥5॥
नूतन किसलय अनल समाना ।
देहि अगिनि जनि करहि निदाना ॥
देखि परम बिरहाकुल सीता ।
सो छन कपिहि कलप सम बीता ॥6॥
सोरठा:
कपि करि हृदयँ बिचार
दीन्हि मुद्रिका डारी तब।
जनु असोक अंगार दीन्हि
हरषि उठि कर गहेउ ॥12 ॥
सीताजी हाथ जोड़कर त्रिजटा से बोलीं- हे माता! तू मेरी विपत्ति की संगिनी है। जल्दी कोई ऐसा उपाय कर जिससे मैं शरीर छोड़ सकूँ। विरह असह्म हो चला है, अब यह सहा नहीं जाता॥1॥
काठ लाकर चिता बनाकर सजा दे। हे माता! फिर उसमें आग लगा दे। हे सयानी! तू मेरी प्रीति को सत्य कर दे। रावण की शूल के समान दुःख देने वाली वाणी कानों से कौन सुने?॥2॥
सीताजी के वचन सुनकर त्रिजटा ने चरण पकड़कर उन्हें समझाया और प्रभु का प्रताप, बल और सुयश सुनाया। (उसने कहा-) हे सुकुमारी! सुनो रात्रि के समय आग नहीं मिलेगी। ऐसा कहकर वह अपने घर चली गई॥3॥
सीताजी (मन ही मन) कहने लगीं- (क्या करूँ) विधाता ही विपरीत हो गया। न आग मिलेगी, न पीड़ा मिटेगी। आकाश में अंगारे प्रकट दिखाई दे रहे हैं, पर पृथ्वी पर एक भी तारा नहीं आता॥4॥
चंद्रमा अग्निमय है, किंतु वह भी मानो मुझे हतभागिनी जानकर आग नहीं बरसाता। हे अशोक वृक्ष! मेरी विनती सुन। मेरा शोक हर ले और अपना (अशोक) नाम सत्य कर॥5॥
तेरे नए-नए कोमल पत्ते अग्नि के समान हैं। अग्नि दे, विरह रोग का अंत मत कर (अर्थात् विरह रोग को बढ़ाकर सीमा तक न पहुँचा) सीताजी को विरह से परम व्याकुल देखकर वह क्षण हनुमान्जी को कल्प के समान बीता॥6॥
तब हनुमान्जी ने हदय में विचार कर (सीताजी के सामने) अँगूठी डाल दी, मानो अशोक ने अंगारा दे दिया। (यह समझकर) सीताजी ने हर्षित होकर उठकर उसे हाथ में ले लिया॥12॥