चौपाई:
जामवंत के बचन सुहाए ।
सुनि हनुमंत हृदय अति भाए ॥
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई ।
सहि दुख कंद मूल फल खाई ॥1॥
जब लगि आवौं सीतहि देखी ।
होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी ॥
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा ।
चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा ॥2॥
सिंधु तीर एक भूधर सुंदर ।
कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर ॥
बार-बार रघुबीर सँभारी ।
तरकेउ पवनतनय बल भारी ॥3॥
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता ।
चलेउ सो गा पाताल तुरंता ॥
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना ।
एही भाँति चलेउ हनुमाना ॥4॥
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी ।
तैं मैनाक होहि श्रम हारी ॥5॥
दोहा:
हनूमान तेहि परसा कर
पुनि कीन्ह प्रनाम ।
राम काजु कीन्हें बिनु
मोहि कहाँ बिश्राम ॥1॥
अर्थात
जाम्बवान् के सुंदर वचन सुनकर हनुमान् जी के हृदय को बहुत ही भाए। (वे बोले-) हे भाई! तुम लोग दुःख सहकर, कन्द, मूल, फल खाकर तब तक मेरी राह देखना॥1॥
जब तक मैं सीताजी को देखकर (लौट) न आऊँ। काम अवश्य होगा, क्योंकि मुझे बहुत ही हर्ष हो रहा है। यह कहकर और सबको मस्तक नवाकर तथा हृदय में श्री रघुनाथ जी को धारण करके हनुमान् जी हर्षित होकर चले॥2॥
समुद्र के तीर पर एक सुंदर पर्वत था। हनुमान् जी खेल से ही (अनायास ही) कूदकर उसके ऊपर जा चढ़े और बार-बार श्री रघुवीर का स्मरण करके अत्यंत बलवान् हनुमान् जी उस पर से बड़े वेग से उछले॥3॥
जिस पर्वत पर हनुमान् जी पैर रखकर चले (जिस पर से वे उछले), वह तुरंत ही पाताल में धँस गया। जैसे श्री रघुनाथ जी का अमोघ बाण चलता है, उसी तरह हनुमान् जी चले॥4॥
समुद्र ने उन्हें श्री रघुनाथ जी का दूत समझकर मैनाक पर्वत से कहा कि हे मैनाक! तू इनकी थकावट दूर करने वाला हो (अर्थात् अपने ऊपर इन्हें विश्राम दे)॥5॥
हनुमान् जी ने उसे हाथ से छू दिया, फिर प्रणाम करके कहा- भाई! श्री रामचंद्र जी का काम किए बिना मुझे विश्राम कहाँ?॥1॥
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