सोरठा:
सिंधु बचन सुनि राम
सचिव बोलि प्रभु अस कहेउ ।
अब बिलंबु केहि काम
करहु सेतु उतरै कटकु ॥
सुनहु भानुकुल केतु
जामवंत कर जोरि कह ।
नाथ नाम तव सेतु
नर चढ़ि भव सागर तरिहिं ॥
चौपाई:
यह लघु जलधि तरत कति बारा ।
अस सुनि पुनि कह पवनकुमारा ॥
प्रभु प्रताप बड़वानल भारी ।
सोषेउ प्रथम पयोनिधि बारी ॥1॥
तब रिपु नारी रुदन जल धारा ।
भरेउ बहोरि भयउ तेहिं खारा ॥
सुनि अति उकुति पवनसुत केरी ।
हरषे कपि रघुपति तन हेरी ॥2॥
जामवंत बोले दोउ भाई ।
नल नीलहि सब कथा सुनाई ॥
राम प्रताप सुमिरि मन माहीं ।
करहु सेतु प्रयास कछु नाहीं ॥3॥
बोलि लिए कपि निकर बहोरी ।
सकल सुनहु बिनती कछु मोरी ॥
राम चरन पंकज उर धरहू ।
कौतुक एक भालु कपि करहू ॥4॥
धावहु मर्कट बिकट बरूथा ।
आनहु बिटप गिरिन्ह के जूथा ॥
सुनि कपि भालु चले करि हूहा ।
जय रघुबीर प्रताप समूहा ॥5॥
दोहा:
अति उतंग गिरि पादप
लीलहिं लेहिं उठाइ ।
आनि देहिं नल नीलहि
रचहिं ते सेतु बनाइ ॥1॥
समुद्र के वचन सुनकर प्रभु श्री रामजी ने मंत्रियों को बुलाकर ऐसा कहा- अब विलंब किसलिए हो रहा है? सेतु (पुल) तैयार करो, जिसमें सेना उतरे।
जाम्बवान् ने हाथ जोड़कर कहा- हे सूर्यकुल के ध्वजास्वरूप (कीर्ति को बढ़ाने वाले) श्री रामजी! सुनिए। हे नाथ! (सबसे बड़ा) सेतु तो आपका नाम ही है, जिस पर चढ़कर (जिसका आश्रय लेकर) मनुष्य संसार रूपी समुद्र से पार हो जाते हैं।
फिर यह छोटा सा समुद्र पार करने में कितनी देर लगेगी? ऐसा सुनकर फिर पवनकुमार श्री हनुमान्जी ने कहा- प्रभु का प्रताप भारी बड़वानल (समुद्र की आग) के समान है। इसने पहले समुद्र के जल को सोख लिया था ॥1॥
परन्तु आपके शत्रुओं की स्त्रियों के आँसुओं की धारा से यह फिर भर गया और उसी से खारा भी हो गया। हनुमान्जी की यह अत्युक्ति (अलंकारपूर्ण युक्ति) सुनकर वानर श्री रघुनाथजी की ओर देखकर हर्षित हो गए ॥2॥
जाम्बवान् ने नल-नील दोनों भाइयों को बुलाकर उन्हें सारी कथा कह सुनाई (और कहा-) मन में श्री रामजी के प्रताप को स्मरण करके सेतु तैयार करो (रामप्रताप से) कुछ भी परिश्रम नहीं होगा॥3॥
फिर वानरों के समूह को बुला लिया (और कहा-) आप सब लोग मेरी कुछ विनती सुनिए। अपने हृदय में श्री रामजी के चरण-कमलों को धारण कर लीजिए और सब भालू और वानर एक खेल कीजिए॥4॥
विकट वानरों के समूह (आप) दौड़ जाइए और वृक्षों तथा पर्वतों के समूहों को उखाड़ लाइए। यह सुनकर वानर और भालू हूह (हुँकार) करके और श्री रघुनाथजी के प्रताप समूह की (अथवा प्रताप के पुंज श्री रामजी की) जय पुकारते हुए चले॥5॥
बहुत ऊँचे-ऊँचे पर्वतों और वृक्षों को खेल की तरह ही (उखाड़कर) उठा लेते हैं और ला-लाकर नल-नील को देते हैं। वे अच्छी तरह गढ़कर (सुंदर) सेतु बनाते हैं ॥1॥