बंदउ गुरु पद पदुम परागा ।
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा ॥
अमिय मूरिमय चूरन चारू ।
समन सकल भव रुज परिवारू ॥
सुकृति संभु तन बिमल बिभूती ।
मंजुल मंगल मोद प्रसूती ॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी ।
किएँ तिलक गुन गन बस करनी ॥
श्रीगुर पद नख मनि गन जोती ।
सुमिरत दिब्य द्रृष्टि हियँ होती ॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू ।
बड़े भाग उर आवइ जासू ॥
उघरहिं बिमल बिलोचन ही के ।
मिटहिं दोष दुख भव रजनी के ॥
सूझहिं राम चरित मनि मानिक ।
गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक ॥
दोहा:
जथा सुअंजन अंजि दृग
साधक सिद्ध सुजान ।
कौतुक देखत सैल बन
भूतल भूरि निधान ॥