चौपाई:
गंग बचन सुनि मंगल मूला ।
मुदित सीय सुरसरि अनुकुला ॥
तब प्रभु गुहहि कहेउ घर जाहू ।
सुनत सूख मुखु भा उर दाहू ॥1॥
दीन बचन गुह कह कर जोरी ।
बिनय सुनहु रघुकुलमनि मोरी ॥
नाथ साथ रहि पंथु देखाई ।
करि दिन चारि चरन सेवकाई ॥2॥
जेहिं बन जाइ रहब रघुराई ।
परनकुटी मैं करबि सुहाई ॥
तब मोहि कहँ जसि देब रजाई ।
सोइ करिहउँ रघुबीर दोहाई ॥3॥
सहज सनेह राम लखि तासु ।
संग लीन्ह गुह हृदय हुलासू ॥
पुनि गुहँ ग्याति बोलि सब लीन्हे ।
करि परितोषु बिदा तब कीन्हे ॥
दोहा:
तब गनपति सिव सुमिरि
प्रभु नाइ सुरसरिहि माथ ।
सखा अनुज सिया सहित
बन गवनु कीन्ह रधुनाथ ॥104॥
मंगल के मूल गंगाजी के वचन सुनकर और देवनदी को अनुकूल देखकर सीताजी आनंदित हुईं। तब प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने निषादराज गुह से कहा कि भैया! अब तुम घर जाओ! यह सुनते ही उसका मुँह सूख गया और हृदय में दाह उत्पन्न हो गया॥1॥
गुह हाथ जोड़कर दीन वचन बोला- हे रघुकुल शिरोमणि! मेरी विनती सुनिए। मैं नाथ (आप) के साथ रहकर, रास्ता दिखाकर, चार (कुछ) दिन चरणों की सेवा करके-॥2॥
हे रघुराज! जिस वन में आप जाकर रहेंगे, वहाँ मैं सुंदर पर्णकुटी (पत्तों की कुटिया) बना दूँगा। तब मुझे आप जैसी आज्ञा देंगे, मुझे रघुवीर (आप) की दुहाई है, मैं वैसा ही करूँगा॥3॥
उसके स्वाभाविक प्रेम को देखकर श्री रामचन्द्रजी ने उसको साथ ले लिया, इससे गुह के हृदय में बड़ा आनंद हुआ। फिर गुह (निषादराज) ने अपनी जाति के लोगों को बुला लिया और उनका संतोष कराके तब उनको विदा किया॥4॥
तब प्रभु श्री रघुनाथजी गणेशजी और शिवजी का स्मरण करके तथा गंगाजी को मस्तक नवाकर सखा निषादराज, छोटे भाई लक्ष्मणजी और सीताजी सहित वन को चले॥104॥