चौपाई:
तब मज्जनु करि रघुकुलनाथा ।
पूजि पारथिव नायउ माथा ॥
सियँ सुरसरिहि कहेउ कर जोरी ।
मातु मनोरथ पुरउबि मोरी ॥1॥
पति देवर संग कुसल बहोरी ।
आइ करौं जेहिं पूजा तोरी ॥
सुनि सिय बिनय प्रेम रस सानी ।
भइ तब बिमल बारि बर बानी ॥2॥
सुनु रघुबीर प्रिया बैदेही ।
तव प्रभाउ जग बिदित न केही ॥
लोकप होहिं बिलोकत तोरें ।
तोहि सेवहिं सब सिधि कर जोरें ॥3॥
तुम्ह जो हमहि बड़ि बिनय सुनाई ।
कृपा कीन्हि मोहि दीन्हि बड़ाई ॥
तदपि देबि मैं देबि असीसा ।
सफल होपन हित निज बागीसा ॥4॥
दोहा/सोरठा:
प्राननाथ देवर सहित
कुसल कोसला आइ ।
पूजहि सब मनकामना
सुजसु रहिहि जग छाइ ॥103 ॥
फिर रघुकुल के स्वामी श्री रामचन्द्रजी ने स्नान करके पार्थिव पूजा की और शिवजी को सिर नवाया। सीताजी ने हाथ जोड़कर गंगाजी से कहा- हे माता! मेरा मनोरथ पूरा कीजिएगा॥1॥
जिससे मैं पति और देवर के साथ कुशलतापूर्वक लौट आकर तुम्हारी पूजा करूँ। सीताजी की प्रेम रस में सनी हुई विनती सुनकर तब गंगाजी के निर्मल जल में से श्रेष्ठ वाणी हुई-॥2॥
हे रघुवीर की प्रियतमा जानकी! सुनो, तुम्हारा प्रभाव जगत में किसे नहीं मालूम है? तुम्हारे (कृपा दृष्टि से) देखते ही लोग लोकपाल हो जाते हैं। सब सिद्धियाँ हाथ जोड़े तुम्हारी सेवा करती हैं॥3॥
तुमने जो मुझको बड़ी विनती सुनाई, यह तो मुझ पर कृपा की और मुझे बड़ाई दी है। तो भी हे देवी! मैं अपनी वाणी सफल होने के लिए तुम्हें आशीर्वाद दूँगी॥4॥
तुम अपने प्राणनाथ और देवर सहित कुशलपूर्वक अयोध्या लौटोगी। तुम्हारी सारी मनःकामनाएँ पूरी होंगी और तुम्हारा सुंदर यश जगतभर में छा जाएगा॥103॥