श्री रामचरितमानस: अयोध्या काण्ड: पद 102 (Shri Ramcharitmanas: Ayodhya Kand: Pad 102)


चौपाई:
उतरि ठाड़ भए सुरसरि रेता ।
सीयराम गुह लखन समेता ॥
केवट उतरि दंडवत कीन्हा ।
प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा ॥1॥
पिय हिय की सिय जाननिहारी ।
मनि मुदरी मन मुदित उतारी ॥
कहेउ कृपाल लेहि उतराई ।
केवट चरन गहे अकुलाई ॥2॥

नाथ आजु मैं काह न पावा ।
मिटे दोष दुख दारिद दावा ॥
बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी ।
आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी ॥3॥

अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें ।
दीनदयाल अनुग्रह तोरें ॥
फिरती बार मोहि जे देबा ।
सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा ॥4॥

दोहा:
बहुत कीन्ह प्रभु लखन सियँ
नहिं कछु केवटु लेइ ।
बिदा कीन्ह करुनायतन
भगति बिमल बरु देइ ॥102॥
अर्थात
निषादराज और लक्ष्मणजी सहित श्री सीताजी और श्री रामचन्द्रजी (नाव से) उतरकर गंगाजी की रेत (बालू) में खड़े हो गए। तब केवट ने उतरकर दण्डवत की। (उसको दण्डवत करते देखकर) प्रभु को संकोच हुआ कि इसको कुछ दिया नहीं॥1॥

पति के हृदय की जानने वाली सीताजी ने आनंद भरे मन से अपनी रत्न जडि़त अँगूठी (अँगुली से) उतारी। कृपालु श्री रामचन्द्रजी ने केवट से कहा, नाव की उतराई लो। केवट ने व्याकुल होकर चरण पकड़ लिए॥2॥

(उसने कहा-) हे नाथ! आज मैंने क्या नहीं पाया! मेरे दोष, दुःख और दरिद्रता की आग आज बुझ गई है। मैंने बहुत समय तक मजदूरी की। विधाता ने आज बहुत अच्छी भरपूर मजदूरी दे दी॥3॥

हे नाथ! हे दीनदयाल! आपकी कृपा से अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। लौटती बार आप मुझे जो कुछ देंगे, वह प्रसाद मैं सिर चढ़ाकर लूँगा॥4॥

प्रभु श्री रामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी ने बहुत आग्रह (या यत्न) किया, पर केवट कुछ नहीं लेता। तब करुणा के धाम भगवान श्री रामचन्द्रजी ने निर्मल भक्ति का वरदान देकर उसे विदा किया॥102॥
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