चौपाई:
कृपासिंधु बोले मुसुकाई ।
सोइ करु जेंहि तव नाव न जाई ॥
वेगि आनु जल पाय पखारू ।
होत बिलंबु उतारहि पारू ॥1॥
जासु नाम सुमरत एक बारा ।
उतरहिं नर भवसिंधु अपारा ॥
सोइ कृपालु केवटहि निहोरा ।
जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा ॥2॥
पद नख निरखि देवसरि हरषी ।
सुनि प्रभु बचन मोहँ मति करषी ॥
केवट राम रजायसु पावा ।
पानि कठवता भरि लेइ आवा ॥3॥
अति आनंद उमगि अनुरागा ।
चरन सरोज पखारन लागा ॥
बरषि सुमन सुर सकल सिहाहीं ।
एहि सम पुन्यपुंज कोउ नाहीं ॥4॥
दोहा/सोरठा:
पद पखारि जलु पान करि
आपु सहित परिवार ।
पितर पारु करि प्रभुहि पुनि
मुदित गयउ लेइ पार ॥101॥
कृपा के समुद्र श्री रामचन्द्रजी केवट से मुस्कुराकर बोले भाई! तू वही कर जिससे तेरी नाव न जाए। जल्दी पानी ला और पैर धो ले। देर हो रही है, पार उतार दे॥1॥
एक बार जिनका नाम स्मरण करते ही मनुष्य अपार भवसागर के पार उतर जाते हैं और जिन्होंने (वामनावतार में) जगत को तीन पग से भी छोटा कर दिया था (दो ही पग में त्रिलोकी को नाप लिया था), वही कृपालु श्री रामचन्द्रजी (गंगाजी से पार उतारने के लिए) केवट का निहोरा कर रहे हैं!॥2॥
प्रभु के इन वचनों को सुनकर गंगाजी की बुद्धि मोह से खिंच गई थी (कि ये साक्षात भगवान होकर भी पार उतारने के लिए केवट का निहोरा कैसे कर रहे हैं), परन्तु (समीप आने पर अपनी उत्पत्ति के स्थान) पदनखों को देखते ही (उन्हें पहचानकर) देवनदी गंगाजी हर्षित हो गईं। (वे समझ गईं कि भगवान नरलीला कर रहे हैं, इससे उनका मोह नष्ट हो गया और इन चरणों का स्पर्श प्राप्त करके मैं धन्य होऊँगी, यह विचारकर वे हर्षित हो गईं।) केवट श्री रामचन्द्रजी की आज्ञा पाकर कठौते में भरकर जल ले आया॥3॥
अत्यन्त आनंद और प्रेम में उमंगकर वह भगवान के चरणकमल धोने लगा। सब देवता फूल बरसाकर सिहाने लगे कि इसके समान पुण्य की राशि कोई नहीं है॥4॥
चरणों को धोकर और सारे परिवार सहित स्वयं उस जल (चरणोदक) को पीकर पहले (उस महान पुण्य के द्वारा) अपने पितरों को भवसागर से पार कर फिर आनंदपूर्वक प्रभु श्री रामचन्द्रजी को गंगाजी के पार ले गया॥101॥