राग रामकली
जय जय भगीरथनन्दिनि, मुनि-चय चकोर-चन्दिनि,
नर-नाग-बिबुध-बन्दिनि जय जह्नु बालिका ।
बिस्नु-बिस्नुपद-सरोजजासि, ईस-सीसपर बिभासि,
त्रिपथगासि, पुन्यरासि, पाप-छालिका ॥ १ ॥
बिमल बिपुल बहसि बारि, सीतल त्रयताप-हारि,
भँवर बर बिभंगतर तरंग-मालिका ।
पुरजन पूजोपहार, सोभित ससि धवलधार,
भंजन भव-भार, भक्ति-कल्पथालिका ॥ २ ॥
निज तटबासी बिहंग, जल-थल-चर पसु-पसुपतंग,
कीट,जटिल तापस सब सरिस पालिका ।
तुलसी तव तीर तीर सुमिरत रघुबंस-बीर,
बिचरत मति देहि मोह-महिष-कालिका ॥ ३ ॥
हिन्दी भावार्थ
हे भगीरथ नंदिनी, तुम्हारी जय हो, जय हो। तुम मुनियों के समूह रूपी चकोरों के लिए चंद्रिका रूप हो। मनुष्य, नाग और देवता तुम्हारी वंदना करते हैं। हे जन्हू की पुत्री, तुम्हारी जय हो।
तुम भगवान विष्णु के चरण कमल से उत्पन्न हुई हो, शिवजी के मस्तक पर शोभा पाती हो। स्वर्ग, भूमि और पाताल इन तीनों मार्गों से तीन धाराओं में होकर बहती ही। पुण्यों की राशि और पापों को धोने वाली हो।
तुम अगाध निर्मल जल धारण किए हो, वह जल शीतल है और तीनों तापों को हरने वाला है। तुम सुंदर भँवर और अति चंचल तरंगों की माला धारण किए हो।
नगर वासियों ने पूजा के समय उपहार चढ़ाये उनसे चंद्रमा के समान तुम्हारी धवल धारा शोभित हो रही है। यह धारा संसार के जन्म मरण रूप भार का नाश करने वाली तथा भक्ति रूपी कल्पवृक्ष की रक्षा के लिए थाल्हा रूप है।
तुम अपने तीर पर रहने वाले पक्षी, जलचर, पशु, पतंग, कीट और जटाधारी तपस्वी आदि सबका समान भाव से पालन करती हो।
हे मोह रूपी महिषासुर को मारने के लिए कालिका रूप गंगाजी, मुझ तुलसीदास को ऐसी बुद्धि दो जिससे वह श्री रघुनाथ जी का स्मरण करते हुए तुम्हारे तीर पर विचरा करे।
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