भक्तमाल | श्रीदासजी
आराध्य - श्रीठाकुरजी
प्रसिद्ध - सन्त सेवा
भक्तमाल कथा
आप सन्तों की सेवा को भगवान् की सेवा से बढ़कर मानते थे। एक बार आपके यहाँ कई सन्त आये। सन्ध्या-आरती हुई। रात्रि-भोजन के बाद आप सन्तों की चरण-सेवा में लग गये। मन्दिर में श्रीठाकुरजी को शयन कराना भूल गये। प्रात:काल मंगला के समय आप मन्दिर में जाने लगे तो मन्दिर के किवाड़ भीतर से बन्द मिले। प्रयत्न करने पर भी किवाड़ नहीं खुले। तब आप बड़े असमंजस में पड़ गये। इतने में देवलोक से आकाशवाणी हुई- अब किवाड़ नहीं खुलेंगे, मेरी सेवा रहने दो, अब सन्तों की ही सेवा करो। मैं रातभर सिंहासन पर खड़ा रहा हूँ, तुमने मुझे शयन नहीं कराया।
यह सुनकर श्री दासजी ने सरल भावसे भगवन से निवेदन किया- प्रभो ! सन्त-सेवा में समय देने के कारण यदि आपकी सेवामें चूक हुई तो आपके नाराज होने का भय मुझे बिल्कुल नहीं है। अपितु, आपकी सेवा में लगा रहूँ और सन्त-सेवा में भूल-चूक हो जाय, तब मुझे आपकी नाराजगी का अति भारी भय रहता है। यह सुनते ही प्रभु प्रसन्न हो गये। किवाड़ पूर्वतः खुल गये। हम तुम पर बहुत प्रसन्न हैं, इस भावसे सन्तसेवा करने वाले भक्त मुझे अपने से भी अधिक प्रिय हैं, और ये भक्त मुझे अपने वश में कर लेते हैं। ऐसा कहकर भगवन ने श्री दासजी को प्रत्यक्ष दर्शन दिए। इस दया के लिए दासजी भगवान के चरणों में लिपट गये। प्रभु उन्हें उठाकर छाती से लगा लिया।
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