श्रीमद भागवत के अन्तर्गत आने वाले गोपियों के पञ्च प्रेम गीत (
वेणुगीत,
युगल गीत,
प्रणय गीत,
गोपी गीत और भ्रमर गीत) इनमें से भ्रमर गीत का वर्णन इस प्रकार है।
काचिन्मधुकरं दृष्ट्वा ध्यायन्ती
कृष्णसङ्गमम् प्रियप्रस्थापितं दूतं कल्पयित्वेदमब्रवीत् ॥ ११ ॥
गोप्युवाच
मधुप कितवबन्धो मा स्पृशङ्घ्रिं
सपत्न्याः कुचविलुलितमालाकुङ्कुमश्मश्रुभिर्नः
वहतु मधुपतिस्तन्मानिनीनां प्रसादं यदुसदसि
विडम्ब्यं यस्य दूतस्त्वमीदृक् ॥ १२ ॥
सकृदधरसुधां स्वां मोहिनीं
पाययित्वा सुमनस इव सद्यस्तत्यजेऽस्मान्भवादृक्
परिचरति कथं तत्पादपद्मं नु पद्मा ह्यपि
बत हृतचेता ह्युत्तमःश्लोकजल्पैः ॥ १३ ॥
किमिह बहु षडङ्घ्रे गायसि त्वं
यदूनाम् अधिपतिमगृहाणामग्रतो नः पुराणम्
विजयसखसखीनां गीयतां तत्प्रसङ्गः क्षपितकुचरुजस्ते
कल्पयन्तीष्टमिष्टाः ॥ १४ ॥
दिवि भुवि च रसायां काः
स्त्रियस्तद्दुरापाः कपटरुचिरहासभ्रूविजृम्भस्य याः स्युः
चरणरज उपास्ते यस्य भूतिर्वयं का अपि
च कृपणपक्षे ह्युत्तमश्लोकशब्दः ॥ १५ ॥
विसृज शिरसि पादं वेद्म्यहं
चाटुकारैर् अनुनयविदुषस्तेऽभ्येत्य दौत्यैर्मुकुन्दात्
स्वकृत इह विसृष्टापत्यपत्यन्यलोका व्यसृजदकृतचेताः
किं नु सन्धेयमस्मिन् ॥ १६ ॥
मृगयुरिव कपीन्द्रं विव्यधे
लुब्धधर्मा स्त्रियमकृत विरूपां स्त्रीजितः कामयानाम्
बलिमपि
बलिमत्त्वावेष्टयद्ध्वाङ्क्षवद्यस् तदलमसितसख्यैर्दुस्त्यजस्तत्कथार्थः ॥ १७ ॥
यदनुचरितलीलाकर्णपीयूषविप्रुट् सकृददनविधूतद्वन्द्वधर्मा
विनष्टाः
सपदि गृहकुटुम्बं दीनमुत्सृज्य दीना
बहव इह विहङ्गा भिक्षुचर्यां चरन्ति ॥ १८ ॥
वयमृतमिव जिह्मव्याहृतं श्रद्दधानाः
कुलिकरुतमिवाज्ञाः कृष्णवध्वो हरिण्यः
ददृशुरसकृदेतत्तन्नखस्पर्शतीव्र स्मररुज
उपमन्त्रिन्भण्यतामन्यवार्ता ॥ १९ ॥
प्रियसख पुनरागाः प्रेयसा प्रेषितः
किं वरय किमनुरुन्धे माननीयोऽसि मेऽङ्ग
नयसि
कथमिहास्मान्दुस्त्यजद्वन्द्वपार्श्वं सततमुरसि सौम्य श्रीर्वधूः साकमास्ते ॥ २० ॥
अपि बत मधुपुर्यामार्यपुत्रोऽधुनास्ते
स्मरति स पितृगेहान्सौम्य बन्धूंश्च गोपान्
क्वचिदपि स कथा नः किङ्करीणां
गृणीते भुजमगुरुसुगन्धं मूर्ध्न्यधास्यत्कदा नु ॥ २१ ॥
हिन्दी भावार्थ
एक गोपी को उस समय स्मरण हो रहा था
भगवान् श्रीकृष्ण के मिलन की लीला का । उसी समय उसने देखा कि पास ही एक भौंरा
गुनगुना रहा है । उसने ऐसा समझा मानो मुझे रूठी हुई समझकर श्रीकृष्ण ने मनाने के
लिये दूत भेजा हो । वह गोपी भौंरें से इस प्रकार कहने लगी। 11
गोपी ने कहा -
मधुप ! तू कपटी का सखा है; इसलिये तू भी कपटी
है । तू हमारे पैरों को मत छू । झूठे प्रणाम करके हमसे अनुनय-विनय मत कर । हम देख
रहीं हैं कि श्रीकृष्ण की जो वनमाला हमारी सौतों के वक्षःस्थल के स्पर्श से मसली
हुई है, उसका पीला-पीला कुङ्कम तेरी पूँछों पर भी लगा हुआ है
। तू स्वयं भी तो किसी कुसुम से प्रेम नहीं करता, यहाँ-से-वहाँ
उड़ा करता हैं । जैसे तेरे स्वामी, वैसा ही तू ! मधुपति
श्रीकृष्ण मथुरा की मानिनी नायिकाओं को मनाया करें, उनका वह
कुङ्कुमरूप कृपा-प्रसाद, जो यदुवंशियों की सभा में उपहास
करने योग्य है, अपने ही पास रक्खें । उसे तेरे द्वारा यहाँ
भेजने की क्या आवश्यकता है ? ।12
जैसा तू काला हैं,
वैसे ही वे भी हैं । तू भी पुष्पों का रस लेकर उड़ जाता है, वैसे ही वे भी निकले । उन्होंने हमें केवल एक बार-हाँ, ऐसा ही लगता है — केवल एक बार अपनी तनिक-सी मोहिनी
और परम मादक अधर-सुधा पिलायी थी और फिर हम भोली-भाली गोपियों को छोड़कर वे यहाँ से
चले गये । पता नहीं; सुकुमारी लक्ष्मी उनके चरणकमलों की सेवा
कैसे करती रहती हैं ! अवश्य ही वे छैल-छबीले श्रीकृष्ण की चिकनी-चुपड़ी बातों में
आ गयी होंगी । चितचोर ने उनका भी चित चुरा लिया होगा ।
अरे भ्रमर ! हम वनवासिनी हैं ।
हमारे तो घर-द्वार भी नहीं है । तू हमलोगों के सामने यदुवंश-शिरोमणि श्रीकृष्ण का
बहुत-सा गुणगान क्यों कर रहा है ? यह सब भला
हमलोगों को मनाने के लिये ही तो ? परन्तु नहीं-नहीं, वे हमारे लिये कोई नये नहीं हैं । हमारे लिये तो जाने-पहचाने, बिल्कुल पुराने हैं । तेरी चापलूसी हमारे पास नहीं चलेगी । तू जा, यहाँ से चला जा और जिनके साथ सदा विजय रहती है, उन
श्रीकृष्ण को मधुपुरवासिनी सखियों के सामने जाकर उनका गुणगान कर । वे नयी हैं,
उनकी लीलाएँ कम जानती हैं और इस समय वे उनकी प्यारी हैं । उनके हृदय
की पीड़ा उन्होंने मिटा दी हैं । वे तेरी प्रार्थना स्वीकार करेंगी, तेरी चापलूसी से प्रसन्न होकर तुझे मुँह-माँगी वस्तु देंगी ।14
भौरे ! वे हमारे लिये छटपटा रहे हैं,
ऐसा तू क्यों कहता है ? उनकी कपटभरी मनोहर
मुसकान और भौहों के इशारे से जो वश में न हो जायें, उनके पास
दौड़ी न आवे — ऐसी कौन-सी स्त्रियाँ हैं ? अरे अनजान ! स्वर्ग में, पाताल में और पृथ्वी में
ऐसी एक भी स्त्री नहीं है । औरों की तो बात ही क्या, स्वयं
लक्ष्मीजी भी उनके चरणरज की सेवा किया करती हैं । फिर हम श्रीकृष्ण के लिये किस
गिनती में है ? परन्तु तू उनके पास जाकर कहना कि तुम्हारा
नाम तो । ‘उत्तमश्लोक’ है, अच्छे-अच्छे लोग तुम्हारी कीर्ति का गान करते हैं, परन्तु
इसकी सार्थकता तो इसमें है कि तुम दीनों पर दया करो । नहीं तो श्रीकृष्ण !
तुम्हारा ‘उत्तमश्लोक’ नाम झूठा पड़
जाता है ।15
अरे मधुकर ! देख, तू मेरे पैर पर सिर मत टेक । मैं जानती हूँ कि तू अनुनय-विनय करने में,
क्षमा-याचना करने में बड़ा निपुण है । मालूम होता है तू श्रीकृष्ण
से ही यही सीखकर आया है कि रूठे हुए को मनाने के लिये दूत को सन्देश-वाहक को कितनी
चाटुकारिता करनी चाहिये । परन्तु तू समझ ले कि यहाँ तेरी दाल नहीं गलने की । देख,
हमने श्रीकृष्ण के लिये ही अपने पति, पुत्र और
दूसरे लोगों को छोड़ दिया । परन्तु उनमें तनिक भी कृतज्ञता नहीं । वे ऐसे निर्मोही
निकले कि हमें छोड़कर चलते बने ! अब तू ही बता, ऐसे अकृतज्ञ
के साथ हम क्या सन्धि करे ? क्या तू अब भी कहता है कि उन पर
विश्वास करना चाहिये ? ।16
ऐ रे मधुप ! जब वे राम बने थे,
तब उन्होंने कपिराज बालि को व्याध के समान छिपकर बड़ी निर्दयता से
मारा था । बेचारी शूर्पणखा कामवश उनके पास आयी थी, परन्तु
उन्होंने अपनी स्त्री के वश होकर उस बेचारी के नाक-कान काट लिये और इस प्रकार उसे
कुरूप कर दिया । ब्राह्मण के घर वामन के रूप में जन्म लेकर उन्होंने क्या किया ?
बलि ने तो उनकी पूजा की, उनकी मुँह-माँगी
वस्तु दी और उन्होंने उसकी पूजा ग्रहण करके भी उसे वरुणपाश से बाँधकर पाताल में
डाल दिया । ठीक वैसे ही, जैसे कौआ बलि खाकर भी बलि देनेवाले
को अपने अन्य साथियों के साथ मिलकर घेर लेता है और परेशान करता है । अच्छा,
तो अब जाने दे; हमें श्रीकृष्ण से क्या,
किसी भी काली वस्तु के साथ मित्रता से कोई प्रयोजन नहीं है । परन्तु
यदि तू यह कहे कि ‘जब ऐसा है तब तुमलोग उनकी चर्चा क्यों
करती हो ?” तो भ्रमर ! हम सच कहती हैं, एक बार जिसे उसका चसका लग जाता है, वह उसे छोड़ नहीं
सकता । ऐसी दशा में हम चाहने पर भी उनकी चर्चा छोड़ नहीं सकती ।17
श्रीकृष्ण की लीलारूप कर्णामृत के
एक कण का भी जो रसास्वादन कर लेता है, उसके
राग-द्वेष, सुख-दुःख आदि सारे द्वन्द्व छूट जाते हैं । यहाँ
तक कि बहुत-से लोग तो अपनी दुःखमय—दुःख से सनी हुई
घर-गृहस्थी छोड़कर अकिञ्चन हो जाते हैं, अपने पास कुछ भी
संग्रह-परिग्रह नहीं रखते और पक्षियों की तरह चुन-चुनकर-भीख माँगकर अपना पेट भरते
हैं, दीन-दुनिया से जाते रहते हैं । फिर भी श्रीकृष्ण की
लीला-कथा छोड़ नहीं पाते । वास्तव में उसका रस, उसका चसका
ऐसा ही है । यही दशा हमारी हो रही है ।18
जैसे कृष्णसार मृग की पत्नी
भोली-भाली हरिनियाँ व्याध के सुमधुर गान का विश्वास कर लेती हैं और उसके जाल में फँसकर
मारी जाती हैं, वैसे ही हम भोली-भाली गोपियाँ
भी उस छलिया कृष्ण की कपटभरी मीठी-मीठी बातों में आकर उन्हें सत्य के समान मान
बैठीं और उनके नखस्पर्श से होनेवाली काम-व्याधि का बार-बार अनुभव करती रहीं ।
इसलिये श्रीकृष्ण के दूत भौरे ! अब इस विषय में तू और कुछ मत कह । तुझे कहना ही हो
तो कोई दूसरी बात कह ।19
हमारे प्रियतम के प्यारे सखा ! जान
पड़ता है तुम एक बार उधर जाकर फिर लौट आये हो । अवश्य ही हमारे प्रियतम ने मनाने
के लिये तुम्हें भेजा होगा । प्रिय भ्रमर ! तुम सब प्रकार से हमारे माननीय हो ।
कहो,
तुम्हारी क्या इच्छा है ? हमसे जो चाहो सो
माँग लो । अच्छा, तुम सच बताओ, क्या
हमें वहाँ ले चलना चाहते हो ? अजी, उनके
पास जाकर लौटना बड़ा कठिन हैं । हम तो उनके पास जा चुकी हैं । परन्तु तुम हमें
वहाँ ले जाकर करोगे क्या ? प्यारे भ्रमर ! उनके साथ-उनके
वक्षःस्थल पर तो उनकी प्यारी पत्नी लक्ष्मीजी सदा रहती हैं न ? तब वहाँ हमारा निर्वाह कैसे होगा ।20
अच्छा,
हमारे प्रियतम के प्यारे दूत मधुकर ! हमें यह बतलाओ कि आर्यपुत्र
भगवान् श्रीकृष्ण गुरुकुल से लौटकर मधुपुरी में अब सुख से तो हैं न ? क्या वे कभी नन्दबाबा, यशोदारानी, यहाँ के घर, सगे-सम्बन्धी और ग्वालबालों को भी याद
करते हैं ? और क्या हम दासियों की भी कोई बात कभी चलाते हैं ?
प्यारे भ्रमर ! हमें यह भी बतलाओं कि कभी वे अपनी अगर के समान दिव्य
सुगन्ध से युक्त भुजा हमारे सिरों पर रक्खेंगे ? क्या हमारे
जीवन में कभी ऐसा शुभ अवसर भी आयेगा ? ।21
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