एक गोपी को उस समय स्मरण हो रहा था
भगवान् श्रीकृष्ण के मिलन की लीला का । उसी समय उसने देखा कि पास ही एक भौंरा
गुनगुना रहा है । उसने ऐसा समझा मानो मुझे रूठी हुई समझकर श्रीकृष्ण ने मनाने के
लिये दूत भेजा हो । वह गोपी भौंरें से इस प्रकार कहने लगी। 11
गोपी ने कहा -
मधुप ! तू कपटी का सखा है; इसलिये तू भी कपटी
है । तू हमारे पैरों को मत छू । झूठे प्रणाम करके हमसे अनुनय-विनय मत कर । हम देख
रहीं हैं कि श्रीकृष्ण की जो वनमाला हमारी सौतों के वक्षःस्थल के स्पर्श से मसली
हुई है, उसका पीला-पीला कुङ्कम तेरी पूँछों पर भी लगा हुआ है
। तू स्वयं भी तो किसी कुसुम से प्रेम नहीं करता, यहाँ-से-वहाँ
उड़ा करता हैं । जैसे तेरे स्वामी, वैसा ही तू ! मधुपति
श्रीकृष्ण मथुरा की मानिनी नायिकाओं को मनाया करें, उनका वह
कुङ्कुमरूप कृपा-प्रसाद, जो यदुवंशियों की सभा में उपहास
करने योग्य है, अपने ही पास रक्खें । उसे तेरे द्वारा यहाँ
भेजने की क्या आवश्यकता है ? ।12
जैसा तू काला हैं,
वैसे ही वे भी हैं । तू भी पुष्पों का रस लेकर उड़ जाता है, वैसे ही वे भी निकले । उन्होंने हमें केवल एक बार-हाँ, ऐसा ही लगता है — केवल एक बार अपनी तनिक-सी मोहिनी
और परम मादक अधर-सुधा पिलायी थी और फिर हम भोली-भाली गोपियों को छोड़कर वे यहाँ से
चले गये । पता नहीं; सुकुमारी लक्ष्मी उनके चरणकमलों की सेवा
कैसे करती रहती हैं ! अवश्य ही वे छैल-छबीले श्रीकृष्ण की चिकनी-चुपड़ी बातों में
आ गयी होंगी । चितचोर ने उनका भी चित चुरा लिया होगा ।
अरे भ्रमर ! हम वनवासिनी हैं ।
हमारे तो घर-द्वार भी नहीं है । तू हमलोगों के सामने यदुवंश-शिरोमणि श्रीकृष्ण का
बहुत-सा गुणगान क्यों कर रहा है ? यह सब भला
हमलोगों को मनाने के लिये ही तो ? परन्तु नहीं-नहीं, वे हमारे लिये कोई नये नहीं हैं । हमारे लिये तो जाने-पहचाने, बिल्कुल पुराने हैं । तेरी चापलूसी हमारे पास नहीं चलेगी । तू जा, यहाँ से चला जा और जिनके साथ सदा विजय रहती है, उन
श्रीकृष्ण को मधुपुरवासिनी सखियों के सामने जाकर उनका गुणगान कर । वे नयी हैं,
उनकी लीलाएँ कम जानती हैं और इस समय वे उनकी प्यारी हैं । उनके हृदय
की पीड़ा उन्होंने मिटा दी हैं । वे तेरी प्रार्थना स्वीकार करेंगी, तेरी चापलूसी से प्रसन्न होकर तुझे मुँह-माँगी वस्तु देंगी ।14
भौरे ! वे हमारे लिये छटपटा रहे हैं,
ऐसा तू क्यों कहता है ? उनकी कपटभरी मनोहर
मुसकान और भौहों के इशारे से जो वश में न हो जायें, उनके पास
दौड़ी न आवे — ऐसी कौन-सी स्त्रियाँ हैं ? अरे अनजान ! स्वर्ग में, पाताल में और पृथ्वी में
ऐसी एक भी स्त्री नहीं है । औरों की तो बात ही क्या, स्वयं
लक्ष्मीजी भी उनके चरणरज की सेवा किया करती हैं । फिर हम श्रीकृष्ण के लिये किस
गिनती में है ? परन्तु तू उनके पास जाकर कहना कि तुम्हारा
नाम तो । ‘उत्तमश्लोक’ है, अच्छे-अच्छे लोग तुम्हारी कीर्ति का गान करते हैं, परन्तु
इसकी सार्थकता तो इसमें है कि तुम दीनों पर दया करो । नहीं तो श्रीकृष्ण !
तुम्हारा ‘उत्तमश्लोक’ नाम झूठा पड़
जाता है ।15
अरे मधुकर ! देख, तू मेरे पैर पर सिर मत टेक । मैं जानती हूँ कि तू अनुनय-विनय करने में,
क्षमा-याचना करने में बड़ा निपुण है । मालूम होता है तू श्रीकृष्ण
से ही यही सीखकर आया है कि रूठे हुए को मनाने के लिये दूत को सन्देश-वाहक को कितनी
चाटुकारिता करनी चाहिये । परन्तु तू समझ ले कि यहाँ तेरी दाल नहीं गलने की । देख,
हमने श्रीकृष्ण के लिये ही अपने पति, पुत्र और
दूसरे लोगों को छोड़ दिया । परन्तु उनमें तनिक भी कृतज्ञता नहीं । वे ऐसे निर्मोही
निकले कि हमें छोड़कर चलते बने ! अब तू ही बता, ऐसे अकृतज्ञ
के साथ हम क्या सन्धि करे ? क्या तू अब भी कहता है कि उन पर
विश्वास करना चाहिये ? ।16
ऐ रे मधुप ! जब वे राम बने थे,
तब उन्होंने कपिराज बालि को व्याध के समान छिपकर बड़ी निर्दयता से
मारा था । बेचारी शूर्पणखा कामवश उनके पास आयी थी, परन्तु
उन्होंने अपनी स्त्री के वश होकर उस बेचारी के नाक-कान काट लिये और इस प्रकार उसे
कुरूप कर दिया । ब्राह्मण के घर वामन के रूप में जन्म लेकर उन्होंने क्या किया ?
बलि ने तो उनकी पूजा की, उनकी मुँह-माँगी
वस्तु दी और उन्होंने उसकी पूजा ग्रहण करके भी उसे वरुणपाश से बाँधकर पाताल में
डाल दिया । ठीक वैसे ही, जैसे कौआ बलि खाकर भी बलि देनेवाले
को अपने अन्य साथियों के साथ मिलकर घेर लेता है और परेशान करता है । अच्छा,
तो अब जाने दे; हमें श्रीकृष्ण से क्या,
किसी भी काली वस्तु के साथ मित्रता से कोई प्रयोजन नहीं है । परन्तु
यदि तू यह कहे कि ‘जब ऐसा है तब तुमलोग उनकी चर्चा क्यों
करती हो ?” तो भ्रमर ! हम सच कहती हैं, एक बार जिसे उसका चसका लग जाता है, वह उसे छोड़ नहीं
सकता । ऐसी दशा में हम चाहने पर भी उनकी चर्चा छोड़ नहीं सकती ।17
श्रीकृष्ण की लीलारूप कर्णामृत के
एक कण का भी जो रसास्वादन कर लेता है, उसके
राग-द्वेष, सुख-दुःख आदि सारे द्वन्द्व छूट जाते हैं । यहाँ
तक कि बहुत-से लोग तो अपनी दुःखमय—दुःख से सनी हुई
घर-गृहस्थी छोड़कर अकिञ्चन हो जाते हैं, अपने पास कुछ भी
संग्रह-परिग्रह नहीं रखते और पक्षियों की तरह चुन-चुनकर-भीख माँगकर अपना पेट भरते
हैं, दीन-दुनिया से जाते रहते हैं । फिर भी श्रीकृष्ण की
लीला-कथा छोड़ नहीं पाते । वास्तव में उसका रस, उसका चसका
ऐसा ही है । यही दशा हमारी हो रही है ।18
जैसे कृष्णसार मृग की पत्नी
भोली-भाली हरिनियाँ व्याध के सुमधुर गान का विश्वास कर लेती हैं और उसके जाल में फँसकर
मारी जाती हैं, वैसे ही हम भोली-भाली गोपियाँ
भी उस छलिया कृष्ण की कपटभरी मीठी-मीठी बातों में आकर उन्हें सत्य के समान मान
बैठीं और उनके नखस्पर्श से होनेवाली काम-व्याधि का बार-बार अनुभव करती रहीं ।
इसलिये श्रीकृष्ण के दूत भौरे ! अब इस विषय में तू और कुछ मत कह । तुझे कहना ही हो
तो कोई दूसरी बात कह ।19
हमारे प्रियतम के प्यारे सखा ! जान
पड़ता है तुम एक बार उधर जाकर फिर लौट आये हो । अवश्य ही हमारे प्रियतम ने मनाने
के लिये तुम्हें भेजा होगा । प्रिय भ्रमर ! तुम सब प्रकार से हमारे माननीय हो ।
कहो,
तुम्हारी क्या इच्छा है ? हमसे जो चाहो सो
माँग लो । अच्छा, तुम सच बताओ, क्या
हमें वहाँ ले चलना चाहते हो ? अजी, उनके
पास जाकर लौटना बड़ा कठिन हैं । हम तो उनके पास जा चुकी हैं । परन्तु तुम हमें
वहाँ ले जाकर करोगे क्या ? प्यारे भ्रमर ! उनके साथ-उनके
वक्षःस्थल पर तो उनकी प्यारी पत्नी लक्ष्मीजी सदा रहती हैं न ? तब वहाँ हमारा निर्वाह कैसे होगा ।20
अच्छा,
हमारे प्रियतम के प्यारे दूत मधुकर ! हमें यह बतलाओ कि आर्यपुत्र
भगवान् श्रीकृष्ण गुरुकुल से लौटकर मधुपुरी में अब सुख से तो हैं न ? क्या वे कभी नन्दबाबा, यशोदारानी, यहाँ के घर, सगे-सम्बन्धी और ग्वालबालों को भी याद
करते हैं ? और क्या हम दासियों की भी कोई बात कभी चलाते हैं ?
प्यारे भ्रमर ! हमें यह भी बतलाओं कि कभी वे अपनी अगर के समान दिव्य
सुगन्ध से युक्त भुजा हमारे सिरों पर रक्खेंगे ? क्या हमारे
जीवन में कभी ऐसा शुभ अवसर भी आयेगा ? ।21
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